दीपोत्सव के पाँच दिन: व्यक्ति, परिवार और समाज ही नहीं राष्ट्र और पर्यावरण की समृद्धि का संदेश

अपनी किसी सफलता पर उत्सव मनाना, समृद्धि का आनंद मनाना तभी सार्थक है जब पूरा परिवार, पूरा कुटुम्ब सहभागी होगा। यही इस पाँच दिवसीय दीपोत्सव की सार्थकता है और यही इसका संदेश है।

The Narrative World    30-Oct-2024
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दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्यौहार है। यह कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी से आरंभ होकर शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक कुल पाँच दिनों तक चलता है। इस उत्सव में पूजन के माध्यम से व्यक्तित्व निर्माण, कुटुम्ब समन्वय, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण तथा राष्ट्र की समृद्धि के पाँच प्रमुख संदेश दिए गए हैं।
 
दीपावली रामजी के अयोध्या लौटने की स्मृति का त्यौहार है। विजयादशमी को लंका विजय हुई और दीपावली को रामजी अयोध्या लौटे। भारत में पुराण कथाओं का सृजन और तीज-त्यौहारों का निर्धारण साधारण नहीं है। इसमें तिथियाँ तो निमित्त हैं। इनके आयोजन विधान के पीछे प्राणी और प्रकृति दोनों के उत्थान और समन्वय का संदेश है। पुराण कथाओं के माध्यम से समाज जीवन में एक आदर्श शैली स्थापना का प्रयास है और तीज-त्यौहार व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और पर्यावरण के संरक्षण और समन्वय का व्यवहारिक संदेश हैं।
 
अब दीपावली उत्सव को देखें। यह कार्तिक अमावस के दो दिन पहले आरंभ होकर दो दिन बाद तक चलता है। यह समयावधि शरद और हेमन्त ऋतु के संगम की है। प्रत्येक ऋतु परिवर्तन का प्रभाव प्रकृति और सभी प्राणियों के जीवन पर पड़ता है। इसे गर्मी, सर्दी, बरसात और फल-फूल-सब्जी की फसलें आती हैं।
 
इसी लिए भारत में प्रत्येक ऋतु का अपना अलग उत्सव है और उसे मनाने का तरीका भी अलग है, जो मनुष्य को ऋतु प्रभाव झेलने की सहज शक्ति देता है। दीपावली उत्सव की तैयारी विजयदशमी से आरंभ हो जाती है। सामान्यतया वर्षा ऋतु का समापन भाद्रपद माह में हो जाता है, लेकिन कुछ भटकते बादल अश्विन माह में भी बरसने आ जाते हैं।
 
बरसात के दिनों में कई हानिकारक दृश्य-अदृश्य जीव घर के सामान, घरों की दीवारों और कोने में अपना स्थान बना लेते हैं। इसलिये दशहरे के बाद सफाई अभियान चलता है। घर की एक-एक वस्तु को झाड़-पौंछ कर साफ किया जाता है। टूटी-फूटी वस्तुएँ फेंककर नई मंगाई जाती हैं। पूरे घर की पुताई होती है। इस सफाई और पुताई अभियान में तीन प्रकार के लाभ होते हैं। पहला लाभ प्रत्येक व्यक्ति के स्वास्थ्य का। वर्षा ऋतु में शरीर में जल तत्व प्रभावी और अग्नि तत्व शिथिल होता है।
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दीपावली की सफाई से घर की सामग्री को यहाँ से वहाँ करने पर शरीर की कोशिकाएँ सक्रिय होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए उत्तम है। दूसरे, घर की पुताई और सामग्री बदलने में समाज के शिल्प वर्ग से संपर्क और समन्वय बनता है। उन्हें काम भी मिलता है। घर की साफ-सफाई, फटे पुराने वस्त्र, अन्य पुरानी वस्तुओं को बाहर करके गुजिया, पपड़ी, मठरी आदि बनाने का काम होता है।
 
ये पूरा परिवार मिलकर बनाता है। प्रत्येक घर में कुछ विशिष्ट पकवान बनाने की परंपरा होती है। घर की महिलाएँ दीवारों पर चित्रकारी करती हैं। इससे बच्चे सीखते हैं और उन्हें अपने घर की परंपराओं से जुड़ाव होता है। स्वयं बनाने में कर्तव्य बोध होता है।
 
साफ-सफाई, सजावट, जमावट आदि के ये सब काम धनतेरस तक पूरे हो जाते हैं और फिर पाँच दिवसीय दीपोत्सव आरंभ होता है। पहले दिन धनतेरस, दूसरे दिन रूप चतुर्दशी, तीसरे दिन दीपावली, चौथे दिन गोवर्धन पूजन और पाँचवे दिन भाई दूज से इस उत्सव का समापन होता है। इन पाँच दिनों की अलग-अलग पौराणिक कथाएँ हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह अवधि समुद्र मंथन की भी है।
 
धनतेरस या धन्वंतरि जयंती: आरोग्य एवं समृद्धि का संदेश
 
यह कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी का दिन है। इसी दिन समुद्र मंथन से धन्वंतरि जी प्रकट हुए थे। धन्वंतरि जी को आरोग्य का देवता माना गया है। वैद्य या चिकित्सक की मान्यता अश्विनी कुमारों को है।
 
अब यह भगवान धन्वंतरि जी के नाम का अपभ्रंश होकर केवल "धन" रह गया हो अथवा स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन माना गया हो, जो भी कारण हो इस तिथि का नाम धनतेरस हो गया है। इस दिन दोनों कार्य होते हैं। आरोग्य वृद्धि का भी और धन वृद्धि की कामना का भी। धन गतिमान होता है। जल की भाँति धन स्वयं अपनी राह निकाल लेता है।
 
इसलिये बुद्धिमान व्यक्ति स्थायित्व के लिये धन को स्थायी संपत्ति में परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं। चल मुद्रा को ऐसी अचल या स्थायी संपत्ति में परिवर्तित करने का प्रयास होता है जो आने वाली पीढ़ियों तक सहेजी जा सके। जो आर्थिक रूप से समृद्ध होगा वही तो स्थायी संपत्ति क्रय कर सकेगा। पुराणों में कहा गया है कि धन इतना कमाओ जैसे रहती दुनियाँ तक आपको रहना है, और धर्म इतना कमाओ मानो इसी क्षण संसार से जाना हो।
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अर्थात धर्मयुक्त मार्ग से धन कमाना। यही धनतेरस पर खरीदारी का संदेश है। और फिर स्वास्थ्य हो या संपत्ति उसकी सार्थकता सदुपयोग में ही होती है। यदि धन का अपव्यय न हुआ और केवल तिजोरी में बंद रखा गया तब भी उसकी उपयोगिता नहीं रहती। इसलिये स्थायी संपत्ति के रूप में यह धन का सकारात्मक परिचालन है।
 
वह स्थायी परिसंपत्ति में भी रहे और परिचालन में भी। धनतेरस के रूप में यही निर्धारण भारतीय मनीषियों ने किया है। इसी प्रकार स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य का संरक्षण ही जीवन को सुखद बनाता है। इसलिये धनतेरस के दिन ये दोनों काम होते हैं। प्रातः उठकर जड़ी-बूटी युक्त जल से स्नान, व्यायाम, आहार संतुलन ताकि रोगों का संक्रमण न हो।
 
वही व्यक्ति स्वस्थ रहेगा जो अपनी आंतरिक ऊर्जा से रोगाणुओं पर नियंत्रण कर सकता है। धनतेरस पर प्रातः उठकर स्नान, ध्यान, व्यायाम आदि की प्रक्रिया कुछ ऐसी है जिससे आंतरिक स्वास्थ्य सशक्त होता है। इस प्रकार धनतेरस के दिन इस तिथि के नाम के अनुरूप दोनों कार्य होते हैं: स्वास्थ्य धन की सुरक्षा और मुद्रा धन के प्रति भी सतर्कता।
 
रूप चतुर्दशी अर्थात सामर्थ्यवान व्यक्तित्व का निर्माण
 
अगला दिन रूप चतुर्दशी का है। इसे नर्क चतुर्दशी भी कहते हैं। जो स्वस्थ होगा, वही तो रूपवान होगा। इसीलिए यह तिथि स्वयं की साधना के मूल्यांकन का दिन है। इस दिन प्रातः उठकर स्नान, व्यायाम, योग साधना का विधान है।
 
यह एक प्रकार से स्वयं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की साधना और दिनचर्या संकल्प है। आरोग्य एवं संकल्पशक्ति से आंतरिक ऊर्जा का संचार होगा तभी चेहरे की कांती बढ़ती है। इस कांती के कारण ही व्यक्ति को रूपवान कहा जाता है। यह तिथि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की समृद्धि की परीक्षा का दिन है। इसलिये तिथि का नाम रूप चतुर्दशी है।
 
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इस तिथि को नर्क चतुर्दशी भी कहा जाता है। पुराण कथाओं के अनुसार इस दिन नरकासुर का वध हुआ था, जिससे मानवता मुक्त हुई थी। नरकासुर के वध के कारण तिथि का नाम नर्क चतुर्दशी पड़ा और उसके अंत से मानवता के चेहरे खिले, जिससे इसे रूप चतुर्दशी भी कहा गया। हम दोनों दृष्टि से इस तिथि को मान सकते हैं। एक नरकासुर के वध के निमित्त नर्क चतुर्दशी और दूसरा स्वास्थ्य, सामर्थ्य और धन के अभाव में व्यक्ति का जीवन नर्क के समान होता है। इसलिए भी इसे नर्क चतुर्दशी कहा गया है। पुरूषार्थ और परिश्रम से धन अर्जित कीजिए, सुव्यवस्थित दिनचर्या से आरोग्य अर्थात रोग रहित रहिए और समाज में प्रतिष्ठित रहिए। यही इन दोनों दिनों का संदेश है।
 
लक्ष्मी जी का पूजन: परिवार ही नहीं पड़ोस के बीच भी समन्वय
 
तीसरा दिन दीपावली का है। इसी दिन भगवान राम चौदह वर्ष वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे। उनके आगमन के आनंद में दीपोत्सव हुआ। इस परंपरा के पालन में इस तिथि को दीपावली मनाई जाती है।
 
दीपोत्सव के लिए इस तिथि का निर्धारण समाज को एक से अधिक संदेश भी देता है। सबसे पहला तो यही है कि दुष्टों के सक्रिय रहते किसी को सुख नहीं मिलता। आनंद में डूबना है तो पहले दुष्टों का अंत करना होगा, जैसा रामजी ने किया था। रामजी चाहते तो युद्ध के बिना ही हनुमान जी माता सीता को लेकर आ जाते, पर रामजी ने अयोध्या लौटने से पहले दुष्टों का अंत करना ही मानवता का हित समझा। यही दीपावली का वास्तविक आनंद है।
 
साथ ही, एक वैज्ञानिक दर्शन भी है। वर्ष में कुल बारह अमावस होती हैं। सभी बारह अमावस में कार्तिक की यह अमावस अपेक्षाकृत अधिक अंधकारमय होती है। चंद्रमा स्वयं प्रकाशमान ग्रह नहीं है। वह सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करता है। चूंकि दोनों ग्रह सतत गतिमान हैं, इसलिए हमें दिन और रात में प्रति क्षण प्रकाश की प्रदीप्ति में अंतर दिखाई देता है।
 
प्रकाश का स्तर एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता। इसीलिए प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस पर प्रकाश और अंधकार की प्रदीप्ति और अंधकार के अनुपात में अंतर होता है। कार्तिक अमावस पर दोनों ग्रहों की स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि इस अमावस की रात के अंधकार में अधिक गहरापन होता है। अंधकार की गहनता ही प्राणी को एक चुनौती होती है। वह अंधकार प्रकाश के अभाव का हो अथवा ज्ञान के अभाव में अज्ञान रूपी अंधकार, दोनों की गहनता को परास्त करने के लिए पुरुषार्थ और पराक्रम युक्त संकल्प चाहिए। इसी संकल्प का प्रकटीकरण है दीपमालिका। इससे संसार अमावस की घनघोर रात्रि में भी प्रकाशमान हो उठता है।
 
दीपोत्सव यह संदेश भी है कि परिस्थिति कितनी भी विषम हो, अंधकार कितना ही गहन हो, यदि उचित दिशा में उचित प्रयत्न किया जाए तो अनुकूल आनंद हो सकता है। अंधकार भी प्रकाश में परिवर्तित हो सकता है। पुरुषार्थ से अंधकार सदैव परास्त होता है। पुरुषार्थ की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहने का संदेश भी दीपावली में है। इस रात पहले लक्ष्मी जी का पूजन होता है, फिर घर के भीतर और बाहर दीप जलाए जाते हैं।
 
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लक्ष्मी पूजन के लिए पहले आरती के लिए एक दिया जलाया जाता है, फिर अन्य दीपक। घर के भीतर हर कोने में और घर के बाहर द्वार पर और आंगन में दिए रखे जाते हैं, पड़ोस में भी दिए और प्रसाद भेजे जाते हैं। यह संदेश गृहलक्ष्मी से जुड़ा है। ध्यान देने की बात यह है कि समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी तो अष्टमी को प्रकट हुई थीं। उस तिथि को महालक्ष्मी पूजन भी हो गया है। फिर पुनः कार्तिक अमावस को लक्ष्मी पूजन होता है। वस्तुतः कार्तिक अमावस की इस पूजन में देवी लक्ष्मी एक प्रतीक रूप में हैं। वास्तव में यह दिन गृहलक्ष्मी के लिए समर्पित है। गृहलक्ष्मी अर्थात गृह स्वामिनी। भारतीय चिंतन में घर गृहस्थी का स्वामी पुरुष या पति नहीं होता, पत्नी होती है, नारी होती है।
 
नारी को ही गृहलक्ष्मी, गृह स्वामिनी या घरवाली कहा गया है। पुरुष को गृहविष्णु या गृहदेवता नहीं कहा जाता। नारी के नाम के आगे "देवी" उपाधि स्वाभाविक रूप से लगती है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि नारी विवाहित है, अविवाहित है, परित्यक्ता है, विधवा है, बालिका है या वृद्धा है। वह किसी भी स्थिति या आयु में हो सकती है। उसके नाम के आगे "देवी" सदैव लगाया जाता है। नारी की संतुष्टि या आवश्यकता पूर्ति की बात ही दीपावली की तैयारी में है।
 
दीपावली पर सदैव घर गृहस्थी की वस्तुएं ही क्रय की जाती हैं। वस्त्र, आभूषण, श्रृंगार सामग्री सब का संबंध नारी से होता है। नारी की पसंद या आवश्यकता से ही धनतेरस या दीपावली के आसपास वस्तुएं क्रय की जाती हैं। एक और बात महत्वपूर्ण है। दीपावली से पहले गुरु पूर्णिमा, रक्षाबंधन, पितृपक्ष आदि तिथियां निकल चुकी होती हैं। इन तिथियों पर गुरु के लिए, बहन के लिए, वरिष्ठ जनों के लिए, यहाँ तक कि पितृपक्ष में पुरोहित जी के लिए भी वस्त्र या अन्य प्रकार की भेंट का दायित्व पूरा हो जाता है, इसलिए कार्तिक मास की अमावस की तिथि गृहस्वामिनी या गृहलक्ष्मी के लिए निर्धारित है।
 
इसमें जहां परिवार जनों में गृह स्वामिनी के माध्यम से परिवार समाज की समृद्धि के उपाय का संदेश है, वहीं गृह स्वामिनी को यह संदेश भी है कि वह पहले परिवार समाज के हित की चिंता करे, फिर अपनी इच्छा पूर्ति का प्रयास करे। ऋग्वेद से लेकर अनेक पुराण कथाओं तक समाज को यह स्पष्ट संदेश है कि वही घर प्रकाशमान होगा जहाँ नारी संतुष्ट और प्रसन्न है। उसी घर में देवता रमण करते हैं जहाँ नारी का सम्मानजनक स्थान होता है। घर की देवी यदि अपनी पसंद और आवश्यकता पूर्ति से संतुष्ट है तभी घर प्रकाशमान होता है।
 
यह सामर्थ्य नारी में ही है कि वह सबसे अंधेरी अमावस की रात्रि को भी प्रकाशमान बना सकती है। दीपावली के दिन वही दीपों से पूरे घर को प्रकाशमान करती है, इसलिए यह त्यौहार देवी लक्ष्मी के पूजन के प्रतीक रूप में गृहलक्ष्मी को ही समर्पित है। यदि गृहलक्ष्मी प्रसन्न है, संतुष्ट है तो पूरा परिवार एक सूत्र में बंधा रहता है।
 
एक बात और, दीपावली के दिन पूरा परिवार मिलकर लक्ष्मी पूजन करता है, जैसा अयोध्या में रामजी और सभी भाइयों एवं उनके पूरे परिवार ने मिलकर दीपावली पूजन किया था। इसलिए यह दीपावली पूजन पूरे परिवार की एकजुटता और पड़ोस के समन्वय का प्रतीक है। पड़ोस में दिए भेजना अर्थात पूरे मोहल्ले को एक जुट रखना है। बाहरी असामाजिक तत्वों के उत्पात पर तभी नियंत्रण होगा जब पूरे मोहल्ले में समन्वय होगा। इसीलिए लक्ष्मी पूजन के बाद पड़ोस में दिए भेजे जाते हैं।
 
गोवर्धन पूजा अर्थात पर्यावरण संरक्षण
 
दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजन होता है। इस दिन गोबर से पर्वत का प्रतीक बनाकर पूजा की जाती है और पशुओं का श्रृंगार करने की परंपरा है। यह तिथि भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत उठाने से जुड़ी है। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर प्रकृति के कोप से मानवता की रक्षा की थी। उसी स्मृति में गोवर्धन पूजा होती है।
 
पर्वत के प्रतीक का पूजन पर्यावरण के संरक्षण से जुड़ा है। प्रकृति और पर्यावरण के केंद्र में पर्वत होते हैं। पर्वत ही बादलों को बरसात के लिए प्रेरित करते हैं। पर्वतों पर जो प्राकृतिक जड़ी बूटियाँ होती हैं, वे प्राणी मात्र को आरोग्य देती हैं। समस्त वन्य प्राणी पर्वतों पर घूमने अवश्य जाते हैं। यही उनके आरोग्य का रहस्य है।
 
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विकसित समाज में भी अपनी गाय आदि पालतू पशुओं को प्रतिदिन वन और पर्वत पर भेजने की परंपरा रही है, यह उनके आरोग्य के लिए थी। यदि समाज द्वारा पर्वत संरक्षित है, सुरक्षित है तो पूरी प्रकृति ही नहीं मानवता भी सुरक्षित है। पर्वतों की सुरक्षा से नदी तालाब तथा अन्य जल स्रोत सुरक्षित रहते हैं। पर्वतीय सुरक्षा ही वनों को सुरक्षा देती है।
 
पर्वत पर ही पनपती है औषधीय वनस्पति जो मनुष्य को आरोग्य देती है। इसलिए यह तिथि गोवर्धन पर्वत के प्रतीक पूजन के माध्यम से पर्यावरण को सुरक्षित रखने का संकल्प है। पर्वतों के संरक्षण में ही वनस्पति और मौसम का संतुलन निहित है।
 
विशेषकर गाय का दूध, गौमूत्र, गौबर आदि में औषधीय गुण आते हैं। पशु आधारित कृषि के लिए ये पशु जितने उपयोगी थे, उससे अधिक इनकी उपयोगिता आज भी अनुभव की जा रही है। गौबर एवं अन्य अपविष्ट पदार्थ सोलर ऊर्जा आदि का संचालन विज्ञान अब जान पाया है। पर भारतीय चिंतन में यह तथ्य अनादि काल से हैं। समाज इनसे दूर न हो, पर्वत और पशुओं का महत्व समझे इसी प्रतीक रूप से यह गोवर्धन पूजा है।
 
भाईदूज अर्थात कुटुम्ब सशक्तीकरण
 
दीपावली का समापन भाई दूज से होता है। इस दिन भाई अपनी बहन के घर जाकर भोजन करता है और भेंट देता है। रक्षाबंधन पर भाई अपने घर बहन को आमंत्रित करता है, पर भाईदूज के दिन भाई अपनी बहन के घर जाता है।
 
पुराणों में इस तिथि के दो निमित्त बताए गए हैं: एक, मृत्यु के देवता यम का अपनी बहन यमुना के घर जाना, और दूसरा, नरकासुर वध के बाद भगवान श्रीकृष्ण का अपनी बहन सुभद्रा के घर जाना। यमुना और यम भाई-बहन हैं। इनके पिता सूर्यदेव हैं।
 
भाई-बहन बचपन में बिछुड़ गए थे। अंत में भाई यम ने अपनी बहन यमुना को खोज लिया, बहन के घर जाकर भोजन किया, और घोषणा की कि इस दिन जो भाई अपनी बहन के घर जाकर भोजन करेगा उसे यमपुरी में कोई कष्ट नहीं होगा।
 
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इस तिथि का संदेश भाइयों को है कि भले ही बहन का विवाह हो गया हो, वह दूसरे घर चली गई हो, पर उसकी चिंता करना, उसके घर जाकर उसकी कुशल-क्षेम का पता लगाना, और बहन के परिवार से भी समन्वय बनाना भाई दूज का संदेश है।
 
हम अपनी समृद्धि में खो न जाएं, सभी भाइयों के बीच ही नहीं, बल्कि विवाहित बहनों के परिवारों से भी समन्वय आवश्यक है। यही कुटुम्ब का रूप है। अपनी किसी सफलता पर उत्सव मनाना, समृद्धि का आनंद मनाना तभी सार्थक है जब पूरा परिवार, पूरा कुटुम्ब सहभागी होगा। यही इस पाँच दिवसीय दीपोत्सव की सार्थकता है और यही इसका संदेश है।
 
पाँच दिवसीय इस दीपोत्सव में समाज का ऐसा कौन सा वर्ग है जिससे किसी परिवार का संपर्क नहीं बनता। इसमें प्रत्येक समाज और व्यक्ति की भूमिका महत्वपूर्ण है। फूल-माला से लेकर मिट्टी के दीये, जूते-चप्पल, वस्त्र, आभूषण, बर्तन तक की खरीदारी होती है। लिपाई-पुताई, सफाई आदि में प्रत्येक समाज का प्रत्येक वर्ग समूह की सहभागिता ही नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ एकाकार होने का त्यौहार भी है दीपावली।
 
लेख
रमेश शर्मा