बीते माह बस्तर से निकल कर नक्सल हिंसा से पीड़ितों का एक दल दिल्ली पहुंचा था। इस दल ने एक ओर जहां देश की मुखिया राष्ट्रपति महोदया से भेंट कर उन्हें अपनी व्यथा सुनाई, वहीं केंद्रीय गृहमंत्री से मिलकर बस्तर में पुनः शांति लाने और माओवादी आतंक को खत्म करने का आग्रह किया।
अब इन्हीं पीड़ितों की कहानियों को लेकर हमारी आलेख शृंखला 'बस्तर की अनसुनी कहानी' भी द नैरेटिव द्वारा प्रकाशित की जा रही है, जिसका यह तीसरा भाग है। इस भाग में एक ऐसे व्यक्ति की व्यथा है, जो यह सोचने को मजबूर है कि माओवादी आतंक ने उसे अपाहिज बनाकर क्यों छोड़ दिया, इससे बेहतर तो उसकी मृत्यु ही हो जाती। आज की कहानी है, माड़वी नंदा की।
बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग - 2): माओवादी हिंसा से पीड़ित बच्ची राधा सलाम ने पूछा "मेरी क्या गलती थी ?"
बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग - 1): 14 वर्ष की आयु में नक्सल हिंसा का शिकार हुए महादेव दुधी की पीड़ा
दिल्ली में जब नक्सल पीड़ितों का दल जंतर-मंतर से लेकर जेनएयू तक में अपनी पीड़ा को बता रहा था, तब एक बात यह भी सामने आई कि इन पीड़ितों की दशा के जितने दोषी बस्तर के जंगलों को नर्क बना रहे माओवादी हैं, उतने ही दोषी इन माओवादियों के शहरी सहयोगी हैं। माड़वी नंदा के साथ भी ऐसे ही अर्बन नक्सलियों और माओवादियों के प्रति संवेदना रखने वाले लोगों ने छल करने का प्रयास किया था।
दरअसल वर्ष 2018 में सुकमा पुलिस ने कोर्ट में माओवादी आतंकवाद के एक मामले में हत्या के प्रयास एवं विस्फोटक अधिनियम के केस को लेकर एक गवाह को पेश करने की बात कही थी, जिसका नाम था माड़वी नंदा। चूंकि माओवादी हिंसा में अपाहिज हो चुके माड़वी नंदा का मानवीय दृष्टिकोण के चलते जिला एवं सत्र न्यायालय ने बयान नहीं लिया था, जिसके बाद तथाकथित माओवादी सहयोगियों ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने का प्रयास किया था।
हालाँकि सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि माड़वी नंदा कौन है, और उसे क्या हुआ था? दरअसल माड़वी नंदा माओवादी हिंसा का शिकार हुआ एक ऐसा जनजातीय बस्तरवासी है, जिसने कम्युनिस्ट आतंक के चलते अपनी दोनों आंखें गंवा दी है। माड़वी नंदा किसी भी एक सामान्य ग्रामीण की तरह किसानी का कार्य करता था।
सुकमा के चिंतागुफा थाना क्षेत्र के अंतर्गत बुरकापाल क्षेत्र में खेती-किसानी करने वाले माड़वी नंदा पर पूरा परिवार आश्रित था। अपनी सामान्य दिनचर्या के तहत माड़वी नंदा 21 अक्टूबर 2013 को भी खेती के लिए निकला था, और यही वो आखिरी दिन था जब माड़वी ने अपनी मातृभूमि-जन्मभूमि को अपनी आंखों से अंतिम बार देखा था।
खेती-किसानी के लिए घर से निकले माड़वी नंदा को यह आभास ही नहीं था कि 21 अक्टूबर 2013 की तारीख उसके जीवन में ऐसा तूफान लेकर आएगी कि उसका पूरा परिवार तबाह हो जाएगा। खेत तक जा रहे माड़वी नंदा के मार्ग में माओवादी आतंकियों के बिछाए बारूदी सुरंग मौजूद थे, जिसके धमाके की आवाज़ पूरे गांव वालों ने सुनी थी।
धमाके की आवाज़ सुनने के बाद ग्रामीणों ने तत्काल मौके पर पहुंचना शुरू किया और जब वहां का मंजर देखा तो, वह बड़ा ही भयावह था। वास्तव में यह धमाका कम्युनिस्ट आतंकवाद का था, जो आम बस्तरवासी पर किया गया था।
जो माओवादियों की हिंसा में मर जाते हैं, उनकी कहानी तो खत्म हो जाती है, लेकिन जो बच जाते हैं, कल्पना कीजिए वो कैसे रहते होंगे ? एक ऐसा किसान जिसके घर में बच्चे हैं, जो परिवार का एकमात्र कमाने वाला है, जिसपर पूरा परिवार आश्रित है, ऐसे व्यक्ति की यदि आँखों की रोशनी चली जाए तो उस परिवार पर क्या बीतेगी ? यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं है, यह माड़वी नंदा की सच्ची कहानी है, जिनकी आँखें माओवादियों के लगाए आईईडी में आने के कारण क्षतिग्रस्त हुई और अब वो अपने दैनिक कार्य के लिए भी परिवार पर आश्रित है।
इतने बड़े हादसे से गुजरने और माओवादी आतंक झेलने के बाद भी माड़वी नंदा के प्रति नक्सल सहयोगियों एवं अर्बन नक्सलियों के मन में कोई संवेदना दिखाई नहीं देती है। हमने 2018 के सुकमा कोर्ट से जिस कहानी की शुरुआत की थी, उसे भी आगे जानना जरूरी है।
एक तरह जहां मानवीय दृष्टिकोण को देखते हुए न्यायालय ने माड़वी नंदा का बयान नहीं लिया, वहीं दूसरी ओर सामाजिक कार्यकर्ता का भेष ओढ़े नक्सलियों की भाषा बोलने वाली सोनी सोरी का कहना था कि माड़वी नंदा पुलिस का कठपुतली बनकर रह गया है। जिस हिंसा की घटना को माड़वी नंदा ने झेला, उसे समझे बिना ही सोनी सोरी जैसे लोगों ने माड़वी की पीड़ा का ही उपहास उड़ा दिया।
इसीलिए जेनएयू पहुँचे इन नक्सल पीड़ितों ने कहा था कि माड़वी नंदा जैसे जनजातीय ग्रामीणों की स्थितियों के लिए जितने दोषी बंदूक पकड़े नक्सली हैं, उतने ही दोषी शहरों में बैठे उनके सहयोगी (अर्बन नक्सल) भी हैं।