भारत में जाति आधारित जनगणना की माँग जोर पकड़ रही है। इससे केवल जातीय आँकड़े ही सामने नहीं आएंगे, अपितु जातिवाद फैलाकर भारत की प्रगति अवरुद्ध करने का संकट भी उत्पन्न हो गया है।
भारत में एक बार फिर जातीय आधारित जनगणना की माँग जोर पकड़ रही है। यह माँग जनसामान्य की ओर से नहीं, अपितु कुछ राजनैतिक दलों और कुछ सामाजिक संगठनों की ओर से तूफानी बनाने का प्रयास हो रहा है।
माँग के बढ़ने के साथ कुछ मीडिया हाउस व्यक्तिगत अपराध की घटनाओं में जातिगत समीकरण ढूंढ़कर समाचार दिखाने में लग गए हैं। कुछ राजनैतिक दलों, कुछ सामाजिक संगठनों और कुछ मीडियाकर्मियों के इस त्रिकोण के अभियान से भारत के सामाजिक वातावरण में एक विशिष्ट खिंचाव दिखने लगा है।
यह खिंचाव ऐसे समय आ रहा है जब भारत अपनी प्रगति के उन्नत लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहा है। इसके परिणाम दिखने लगे और दुनिया स्वीकार भी करने लगी। भारत की प्रगति से ईर्ष्या करने वाली शक्तियाँ प्रगति अवरुद्ध करने का कुचक्र चला सकती हैं। देश के विभिन्न भागों में घटने वाली घटनाओं में इसकी झलक भी दिखने लगी है।
भारत में भारत को कमजोर करने के लिए कोई सनातन धर्म को डेंगू-मलेरिया बताता है, कोई सनातन धर्म को समाप्त करने का आह्वान करता है और बांग्लादेश की भाँति भारत में आंदोलन की धमकी दे रहा है। इसका सामना समाज की संगठित शक्ति से ही किया जा सकता है।
लेकिन यदि इस तनाव में जातिवाद का घोल मिला दिया गया और समाज जातिगत खिंचाव में उलझ गया तो भविष्य की दीवारों पर उभर रही इन समस्याओं से हट जाएगा और भारत की विकास गति अवरुद्ध हो जाएगी।
जातीय आधारित जनगणना को हवा देने वाले वे क्षेत्रीय दल हैं जिनकी राजनीति का आधार जाति, वर्ग, भाषा और क्षेत्रीयता है। अब इन्हें कांग्रेस का साथ भी मिल गया है। इन दलों के नेताओं का उद्देश्य राष्ट्ररक्षा या समाज सेवा नहीं, केवल सत्ता है। ये सभी राजनैतिक दल गठबंधन बनाकर केवल जातिवाद की बात कर रहे हैं।
लंबा इतिहास है सत्ता के लिए विभाजन की राजनीति का
समाज को बाँटकर सत्ता प्राप्त करने का फार्मूला नया नहीं है। यह वही फार्मूला है जो भारत पर राज करने के लिए विदेशियों ने अपनाया था। सल्तनत काल में रियासतों को बाँटकर आपस में लड़ाने का कुचक्र चला। अंग्रेजी काल में रियासतों के साथ समाज को बाँटने की भी नीति बनी।
अंग्रेजों ने इसे छुपाया भी नहीं, स्पष्ट कहा था "डिवाइड एंड रूल" अर्थात बाँटो और राज करो। अंग्रेजों ने इसकी शुरुआत 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के साथ की थी। उन्होंने अपनी सत्ता विस्तार के लिए चर्च को सक्रिय किया। चर्च ने भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का मनोवैज्ञानिक सर्वे किया। फिर विभाजन नीति तैयार करके शुरुआत वन क्षेत्रों से की।
ऐसा साहित्य तैयार कराया और ऐसी कहानियाँ गढ़ीं जिससे वनवासी और नगरवासी समाज अलग-अलग दिखें। अंग्रेजों ने कूट रचित साहित्य से पहले विभाजन की रेखा ही नहीं खींची, फिर वैमनस्यता का रंग चढ़ाया। इसके बाद नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजन की लकीरें खींचने की योजना बनी।
इसका आधार जाति को बनाया। अंग्रेजों ने पहली बार जन्म आधारित जाति व्यवस्था घोषित की और शासकीय अभिलेखों में जाति लिखना आरंभ किया। अंग्रेज यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने जाति आधारित सेना गठित की। जैसे एक ही प्रांत महाराष्ट्र में "महार रेजिमेंट" अलग और "मराठा रेजिमेंट" अलग।
राजस्थान में "राजपूताना राइफल्स" अलग और "राजस्थान राइफल्स" अलग। इसी तरह पंजाब में "सिख रेजिमेंट" अलग और "पंजाब रेजिमेंट" अलग। ऐसा विभाजन पूरे देश में किया। अपनी सैन्य छावनियों में भी ऐसा वातावरण बनाया जिससे जातीय स्पर्धा और ईर्ष्या बढ़े। यही वातावरण सभी शासकीय कार्यों में बनाया। और इसी के साथ जातीय आधारित जनगणना आरंभ की।
जातीय आधारित जनगणना का इतिहास: विरोध और समर्थन
जाति आधारित जनगणना करने का निर्णय 1872 में हुआ। वायसराय मेयो के निर्देशन में जातीय आधारित जनगणना के आँकड़े पहली बार 1881 में सामने आए। यह काम 1931 तक चला। 1941 की जनगणना भी जाति आधारित हुई थी पर गांधीजी और अन्य प्रमुख जनों के आग्रह पर अंग्रेजों ने आँकड़े जारी नहीं किए।
स्वतंत्रता के बाद अंग्रेज चले गए पर अंग्रेजियत बनी रही। यह अंग्रेजियत के बने रहने के कारण ही अंग्रेजों का अंतिम वायसराय भारत का पहला गवर्नर जनरल बना, अंग्रेजों का दिया गया नाम "इंडिया" भी बना रहा और राजकाज में अंग्रेजी का प्रभुत्व भी यथावत रहा। यह अंग्रेजों द्वारा बोए गए बीज का प्रतिफल था कि स्वतंत्रता के बाद भी एक समूह ऐसा रहा जो जाति आधारित जनगणना पर जोर देता रहा।
स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना 1951 में हुई थी। तब भी जाति आधारित जनगणना की माँग उठी थी। लेकिन तब लगभग सभी नीति निर्धारकों ने इस माँग को देशहित के विरुद्ध बताकर नकार दिया था। तब के राजनेताओं ने गांधीजी के सिद्धांत पर अमल करना उचित समझा।
गांधीजी ने अपने स्वराज की कल्पना में कहा था—"स्वराज सबके कल्याण के लिए होगा, स्वराज में जाति और धर्म को स्थान नहीं होगा"। गांधीजी का यह आलेख 'यंग इंडिया' के मई 1930 अंक में छपा था। जाति आधारित जनगणना का मुखर विरोध सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था, जिनका समर्थन पं. जवाहरलाल नेहरू, बाबासाहेब अंबेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी किया था। अंबेडकर जी और डॉ. लोहिया का तो पूरा अभियान ही जातिवाद को मिटाने का था।
लेकिन अब उन्हें अपना आदर्श बताकर राजनीति करने वाले राजनैतिक दल जाति आधारित जनगणना कराने पर अड़े हुए हैं। यही स्थिति कांग्रेस की है। गांधीजी, नेहरूजी और शास्त्रीजी के बाद की पीढ़ी में श्रीमती इंदिरा गांधी भी जाति आधारित जनगणना के विरुद्ध थीं। एक समय कांग्रेस का तो नारा था—"जात पर न पांत पर, मोहर लगेगी हाथ पर"। किन्तु आज कांग्रेस जाति आधारित जनगणना का अभियान चला रही है। जगह-जगह सभाएँ कर रही है।
उनके नेताओं के भाषण इतने आक्रामक हैं जिन्हें सुनकर लगता है मानो देश में सारी समस्याओं का निदान केवल जातीय आधारित जनगणना में है। कुछ राजनैतिक दलों के नेता तो अब अपराधियों के बारे में टिप्पणी भी जाति देखकर करने लगे। जिन डॉ. राम मनोहर लोहिया ने समाज से जातिवाद मिटाने का संकल्प लिया था, उनको आदर्श मानने वाले अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जातिवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी सरकार की शक्ति समाज के एकत्व, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव के भाव में है। इसे तोड़ने के लिए ही जातीय आधारित जनगणना का मार्ग बनाया जा रहा है। जातीय विमर्श के अभियान से समाज का ध्यान उन समस्याओं से दूर होने लगा जो देश की प्रगति और संस्कृति को कमजोर करने के लिए उत्पन्न की जा रही हैं।
जब से जातीय आधारित जनगणना की माँग उठी, तब से समाज का ध्यान उन लोगों की ओर से भी हट गया जो सनातन धर्म को समाप्त करने का आह्वान कर रहे थे। जब यह आह्वान हुआ था, तब संपूर्ण सनातनी समाज में भावनात्मक एकात्मकता दिखने लगी थी।
पता नहीं यह केवल संयोग है या योजनानुसार कार्य कि जब से जातीय आधारित जनगणना की माँग उठी है तब से वे लोग ओझल हो गए जो सनातन धर्म को समाप्त करने का कुचक्र कर रहे हैं। उनका काम रुका नहीं होगा। बल्कि समाज जातीय समीकरण के आँकड़ों में उलझ गया।
भविष्य के संकेत चिंताजनक
भविष्य की दीवार पर जो आशंका झाँक रही है, उसे देखकर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आगे चलकर यह अभियान केवल जाति आधारित जनगणना अथवा उनके आँकड़े एकत्र करने तक सीमित न रहेगा, अपितु समाज के भीतर कुछ ऐसे तत्व भी सक्रिय हो सकते हैं जो समाज में जाति आधारित वैमनस्य फैलाने का काम करें।
यह सोशल मीडिया का जमाना है। कुछ लोग फर्जी अकाउंट बनाकर जातियों के परस्पर वैमनस्य फैलाने की सामग्री डाल सकते हैं, फर्जी वीडियो भी हो सकते हैं। ऐसी फर्जी सामग्री और वीडियो सामने आने भी लगे हैं। यह आशंका भी प्रबल है कि राजनैतिक समूहों में वे शक्तियाँ भी शामिल हो जाएँ जो भारतीय समाज में जातीय विवाद पैदा कर प्रगति का मार्ग अवरुद्ध करें।
लेख
रमेश शर्मा