बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग-5) : माओवादी आतंक की शिकार कोसी माड़वी कभी अपनी बेटी को नहीं देख पाएगी

08 Oct 2024 13:36:04


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आप दिल्ली, मुम्बई, पुणे, बैंगलोर या देश के किसी भी बड़े शहर में रहते हों, केवल बड़े ही नहीं, बल्कि किसी छोटे शहर में भी रहते हों, तो क्या आपको लगता है कि आप अपने किसी रिश्तेदार से मिलने पड़ोस के शहर या गांव जाएंगे तो आपका पैर किसी आईईडी विस्फोट की चपेट में आ जाएगा ? क्या आपने कभी यह कल्पना भी की है कि सड़क में चलते हुए आपको कभी किसी आईईडी बम विस्फोट में फंसना पड़ सकता है ? संभवतः आपका उत्तर होगा - नहीं! ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं।


लेकिन कम्युनिस्ट आतंकवाद के प्रभाव के कारण छत्तीसगढ़ का बस्तर क्षेत्र इसी पीड़ा से गुजर रहा है। वहां के अंदरूनी गांवों में कब, किस स्थान पर माओवादियों ने बारूद बिछा रखे हैं, यह किसी को नहीं पता है। आम बस्तरवासी इन बारूदों के ढेर में बैठे हैं, जो आये दिन इससे होने वाले हादसों का शिकार हो रहे हैं।


ये ऐसे भोले-भाले ग्रामीण हैं जिन्हें ना नक्सलवाद पता है, ना माओवाद पता है और ना ही कम्युनिज़्म की तथाकथित क्रांति को वो जानते हैं। लेकिन फिर भी इस लाल आतंक का शिकार बन रहे ये मासूम बस्तरवासी अपने कटे पैरों, लड़खड़ाते जुबानों और कांपते हाथों से अपनी कहानी बता रहे हैं, गए बता रहे हैं कि कैसे बिना किसी गुनाह के भी ये सभी उस लाल आतंक का शिकार बन चुके हैं, जिसने बस्तर को नर्क बना दिया है।


इन्हीं कहानियों को हम आपके सामने ला रहे हैं 'बस्तर की अनसुनी कहानी' आलेख शृंखला के माध्यम से। आज पढ़िए इस शृंखला का पांचवा आलेख, जिसमें कहानी है कोसी माड़वी की, जिसके लिए बस्तर की सुंदरता अब केवल कल्पना हो चुकी है, और इसका कारण है माओवादी आतंक।

बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग - 1): 14 वर्ष की आयु में नक्सल हिंसा का शिकार हुए महादेव दुधी की पीड़ा

बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग - 2): माओवादी हिंसा से पीड़ित बच्ची राधा सलाम ने पूछा "मेरी क्या गलती थी ?"

बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग - 3) : पहले नक्सल हिंसा ने छीन ली आंखें, फिर अर्बन नक्सलियों ने पीड़ा को ठहराया झूठा, पढ़िए माड़वी नंदा की व्यथा


द नैरेटिव की टीम जब माओवादी हिंसा से पीड़ित बस्तरवासियों के साथ दिल्ली में मौजूद थी, तब एक पीड़ित महिला हमें दिखाई दी, यह महिला हिंदी नहीं बोल सकती थी। इनसे जब हमने माओवादी हिंसा के बारे में पूछने का प्रयास किया, तब इन्होंने अपने भोलेपन से उत्तर दिया, लेकिन हिंसा और नक्सलवाद पर कुछ नहीं कहा।


हमारी टीम जब इनके साथ दिल्ली से लौट रही थी, तब हमने देखा कि कोसी माड़वी धीमे-धीमे रो रही है। हमने पूछने का प्रयास किया कि कोसी को क्या हुआ है, जिसके बाद उसने कहा कि उसे अपनी बकरी और मुर्गी की याद आ रही है।


यह सुनने में तो बेहद ही सामान्य लग सकता है, लेकिन जब इसके पीछे का भाव हम समझते हैं, तो पता चलता है कि यही वो मूल भोलापन है, जो एक सामान्य बस्तरवासी में होता है। ऐसे ही भोलेपन का फायदा माओवादियों ने बस्तर में उठाया है।


खैर, यह कहानी है कोसी माड़वी की। बस्तर की एक जनजातीय ग्रामीण जो अपने पति हुंगा माड़वी के साथ दंतेवाड़ा के गुड़से गांव में रहती हैं। इसी कोसी माड़वी की एक बेटी पाले कवासी है, जो पड़ोस के ही गांव सुरनार में रहती है।


“कोसी माड़वी बड़े दिनों से अपनी बेटी से मिलना चाहती थी, उसे देखना चाहती थी, और इसी इच्छा की पूर्ति के लिए कोसी ने अपनी बेटी के गांव जाने का मन बनाया, उसे देखकर उससे मिलने का मन बनाया। लेकिन इस भोली कोसी को यह नहीं पता था कि बस्तर में बीते 4 दशकों से बैठा माओवादी आतंकवाद ना उसे उसकी बेटी से मिलने देगा और ना ही उसकी बेटी को कभी देखने देगा।”


09 अक्टूबर 2020 की सुबह, जब पूरा देश कोरोना के लॉकडाउन को पीछे छोड़ फिर से रफ्तार पकड़ रहा था, और पक्की सड़कों पर तेज रफ्तार से गाड़ियां चलनी शुरू हो चुकी थी, तब दंतेवाड़ा के एक कच्चे-पक्के रास्ते पर माड़वी दंपति पैदल ही सुरनार के लिए निकला।


माओवादियों के आतंक के चलते जिन क्षेत्रों में गाड़ी भी नहीं चलाई जा सकती, ऐसे रास्तों में माओवादियों ने बारूद के ढेर बिछा रखे थे, और इन्हीं बारूदों के एक ढेर में कोसी माड़वी का पैर पड़ गया, जिसके बाद वो हुआ जिसके चलते कोसी कभी अपनी बेटी को नहीं देख पाई।


माओवादियों ने दो गांवों के बीच के रास्ते में आईईडी प्लांट कर रखा था, और उसी बम के ऊपर कोसी का पैर आ गया। बम में जोरदार धमाका हुआ और कोसी माड़वी इस विस्फोट में अचेत हो गई।


“कोसी का चेहरा इस घटना में बुरी तरह से प्रभावित हुआ। उसके हाथ-पैर एवं शरीर के अन्य हिस्सों में गंभीर चोटें आई। लेकिन इस घटना में कोसी माड़वी को जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ, वह थी उसकी आंखें। कोसी ने इस हादसे में अपने दोनों आंखों की रोशनी को हमेशा के लिए गंवा दिया।”


अपनी बेटी को याद कर उससे मिलने, उसे देखने, उसे निहारने के लिए घर से निकली कोसी, हमेशा के लिए नेत्रहीन हो गई। इसके बाद वो अपनी बेटी को कभी देख नहीं सकी।


कोसी का भोलापन कुछ ऐसा है कि इतने बड़े हादसे के बाद भी जब उससे पूछा गया कि उस बम को किसने लगाया या क्यों लगाया ? तो कोसी कहती है कि 'क्या पता किसने किया, पर जिसने भी लगाया हो, उसने बुरा किया।'


बस्तर की जमीन कोसी जैसे हजारों बेगुनाहों को देखा है जिनकी कम्युनिस्ट आतंकवाद के चलते पूरी जिंदगी बर्बाद हो चुकी है। इस कम्युनिस्ट आतंकवाद ने ना सिर्फ बस्तर की हरियाली को खून से लाल किया है, बल्कि यहां के लोगों के जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है।


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