अमृतसर में पंजाब की दस गुरु परंपरा के छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद जी की पांचवीं संतान के रूप में गुरु तेग बहादुर जी का जन्म अप्रैल 1621 में हुआ। 'गुरु बिलास' में लिखित है की भाई विधि चंद में अत्यन्त आश्चर्य से देखा कि गुरु हरिगोबिंद ने नवजात शिशु को असाधारण सम्मान देते हुए प्रणाम किया तथा कहा कि उन्हें उस बालक में अपने पिता आदरणीय गुरु अर्जुन देव जी का समर्पण भाव दिखता है। गुरु हरगोबिंद जी ने नवजात शिशु का नाम 'त्यागमल' रखा।
गुरु हरगोबिंद जी के शौर्य तथा माता नानकी के दया भाव और करुणा की मूर्ति त्यागमल अति परोपकारी तथा जिज्ञासु थे। प्रकृति के लीलाओं, मानव व्यवहार और जीवन मृत्यु के प्रति उनमें अपार जिज्ञासा थी। उन्होंने समझा कि जीवन का लक्ष्य केवल इतना है कि ईश्वर की इच्छा और उसकी आज्ञा के अनुसार जीवन में सत्य धर्म के मार्ग पर अडिग रहना।
गुरु तेग बहादुर जी आचरण और व्यवहार में समरूपता के प्रबल पक्षधर थे। कथनी और करनी के फर्क को सबसे बड़ा ढोंग मानते थे। बचपन में ही उन्होंने जान लिया था कि आचार और व्यवहार में एकरूपता लाए बिना प्रभाव पैदा नहीं होता, आचरण में शुद्धता लाए बिना वाणी को शुद्धता प्राप्त नहीं होती, शब्द केवल लिपि या ध्वनि मात्र नहीं, अपितु शुद्ध भावों का प्रवाह शब्दों द्बारा ही होता है।
श्री गुरु तेग बहादुर जी की प्रारंभिक शिक्षा पांच वर्ष की आयु में बाबा बुड्ढाजी की निगरानी में प्रारंभ हुई, जो गुरु पद नियुक्ति आयोजन के मुख्य संचालक भी थे। गुरु अर्जुन देव जी के निर्देशन में 'आदिग्रंथ' की प्रथम प्रतिलिपि तैयार करने वाले भाई गुरुदास जी ने कविता तथा दर्शन शास्त्र का ज्ञान दिया। उन्हें बाबक तथा योद्धा मल जी द्वारा शस्त्र विद्या की शिक्षा दी। गई गुरु तेग बहादुर जी को आध्यात्मिक तौर पर शिक्षित करने में प्रकृति की भी प्रबल योगदान रहा।
किशोरावस्था में श्री गुरु तेग बहादुर जी अपने पिता हरगोविंद जी के साथ कुछ वर्षों तक करतारपुर में रहे। यही उनके पिताजी ने लालचंद की पुत्री गुजरी से तेग बहादुर का विवाह अत्यंत धूमधाम से किया। गुरु हरगोबिंद जी ने करतारपुर में पंजाब की आस्था का प्रतीक दस गुरु परंपरा तथा अस्त्र शस्त्र का प्रचार अत्यंत जोरों पर किया, जिससे उनके कई विरोधियो ने उनकी शिकायत लाहौर के मुगल दरबार में की।
1634 में हर गोबिंद राय को मुगलों ने करतारपुर में ही घेर लिया, जिसका अनुसरण काले खां और पैदा खां कर रहे थे। समकालीन इतिहासकार लिखते हैं कि पिता की अनुमति पाकर त्यागमल के शस्त्र रणभूमि में बिजली की भांति चमक रहे थे। शांत, चुपचाप, सुजवान बालक त्यागमल एक योद्धा की भांति रणभूमि में अपने पराक्रम तो दर्शा रहा था, इसी युद्ध के पश्चात मीरी-पीरी के दर्शन को चरितार्थ करते हुए त्यागमल 'तेग बहादुर' बनकर प्रसिद्ध हुए।
गुरु गद्दी की प्राप्ति
आठवें गुरु हरकिशन जी ने अपने अंतिम समय में शिष्यों को प्रवचन देते हुए कहा कि, "गुरु भले ही संसार से चले जाएं, परंतु उनके हृदय 'गुरु ग्रंथ साहिब जी' सदा आपके पास रहेंगे।" तथा अन्तिम गुरुबाणी के पश्चात केवल दो ही शब्द उचारे 'बाबा बकाला'। जिसका उनके शिष्यों ने सही अर्थ निकाला कि गुरु गद्दी के अगले गुरु बकाले में ही स्थित है, शीघ्र ही संपूर्ण पंजाब में यह बात फैल गई।
गुरु नानक देव जी की शिक्षा का अनुसरण करने वाले सभी मनुष्य संत प्रकृति के ही थे, परंतु हरिकिशन जी द्वारा स्पष्ट रूप से नाम घोषित कर पाने के कारण शिष्यों में मानसिक धुंध छा गई, जिससे समाज में नकली मनुष्यों ने स्वयं को गुरु जताने का झूठा आडंबर करना आरंभ किया।
मुगल शासकों के 22 सूबेदार थे तो गुरु अमर दास जी ने 22 मंजिया बनाई जिसके बाद से मसंद शब्द प्रचलित हुआ, इनका मुख्य कार्य गुरु संगत का संगठन करना गुरु शिक्षा का प्रचार करना तथा दसवंध की भेंट को गुरु गद्दी तक पहुंचाना था। इन मसंदों की नियुक्ति स्वयं गुरु एवं गुरु गद्दी द्वारा की जाती थी। गुरु गद्दी प्राप्ति की लालसा में सारे 22 मसंद दकाला में प्रकट हो गए और गुरु परिवार से संबंधित धीरमल या सोढी वंश के साधु स्वयं को गुरु गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर अपनी- अपनी गद्दी जमा कर बैठ गए।
धीरमल ने गुरु गद्दी का दावा इसलिए प्रबल किया क्योंकि वह सीधा हरगोबिंद जी का वंशज था, जो हरगोबिंद के ज्येष्ठ पुत्र गुरुदित्ता जी का पुत्र था तथा जिसके भाई तथा भतीजे सातवें और आठवें गुरु के तौर पर गद्दी पर विराजमान हो चूके थे। गुरु अर्जुन देव जी द्वारा तैयार आदिग्रंथ की मूल प्रतिलिपि भी उसी के कब्जे में थी, इन कारणों से धीरमल को पूर्ण विश्वास था कि गुरु गद्दी का नौवाँ अधिकारी वही होगा।
परंतु गुरु संगत के दिलों में बनी मानसिक धुंध तथा उनकी व्याकुलता का वर्णन 'महिमा प्रकाश' में कुछ इस प्रकार है - "डगमग मन संगत भइया दिड निसचे मन नहीं होइ। जिस चित्रित पास नीर की पै सो त्रिपत न सोइ।।" क्योंकि बकाला में डेरा जमाए सभी साधु पाखंडी प्रकृति के थे, जिसका कारण वहां पहुँच कर संगत के मन में शीतलता नहीं मिली बल्कि ऐसे व्यवहार को देख और भी ज्यादा बेचैन हो उठी थी।
माता जी की आज्ञा प्राप्त कर सभी अनुयायी तेग बहादुर के पास पहुंचे और गुरु हरिकिशन जी की अंतिम वाणी के बारे में बताया गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि उसके बाद बाबा गुरु पद ग्रहण करें। माता नानकी ने गोइंदावाल में रहने वाले गुरु अमर दास के वंशज बाबा द्वारका दास जी को पत्रिका भेजकर बकाला आने को कहा। उन्होंने भी तेग बहादुर जी को नौवें गुरु के रूप में स्वीकार करते हुए हर्ष प्रकट किया।
गुरु पद की पुष्टि
इतिहासकारों और काव्यों से ज्ञात होता है कि तेग बहादुर को नौवें गुरु के रूप में मान्यता का सर्वप्रथम सार्वजनिक प्रदर्शन मक्खन शाह नामक लुबाना के व्यक्ति ने किया था। मक्खन शाह मूलतः एक व्यापारी था, जिसका समुद्र पार के देशों तक व्यापार फैला हुआ था।
एक बार माल से भरा हुआ उसका जहाज समुद्री तूफान की चपेट में आ गया। समुद्र की तरंगों ने उसके जहाज को तिनके की तरह उछाला, जिसे देखकर मक्खन शाह ने हृदय में स्मरण किया कि यदि माल बच गया तो उस माल की कमाई से दसवंध निकाल गुरु गद्दी को समर्पित करेगा। अतः माल और जहाज दोनों बच गए तथा उस माल के व्यापार से काफी लाभ प्राप्त हुआ।
पंजाब लौटकर दशवंध के तौर पर 500 स्वर्ण मोहरों की थैली लेकर गुरु की खोज में निकल पड़ा जो उसे बकाला तक लेकर आ गई। बकाला में गुरुगद्दी का दावा करने वाली 22 मंजियों को देख मक्खन शाखा का हृदय काफी दुखी हुआ।
सच्चे गुरु का पता करने हेतु मक्खन शाह ने सोचा कि जो गुरु उससे ठीक 500 मोहारों की मांग करेगा जितनी उसके मन में ठानी थी वही सच्चा गुरु होगा। माता नानकी से आज्ञा लेकर उसने एक गुरूजी से भेंट की और अपनी योजना के अनुसार उसके समक्ष पांच मोहरों की भेंट रखी तो गुरु तेग बहादुर जी ने आशीर्वाद देकर सहज भाव से पूछा कि तुम्हारी मन्नत की राशि का शेष भाग कहाँ है?
यह सुनकर मक्खन शाह बहुत हैरान हुआ तथा हृदय में खुशी की लहर दौड़ पड़ी, जिसकारण नेत्रों से आंसू झलक उठे, माथा टेककर गुरु जी को प्रणाम किया तथा बाकी के चढ़ावे की सारी राशि गुरु जी को भेंट की। गुरु जी को माथा टेकने के पश्चात कपड़े का एक टुकड़ा हवा में लहराते हुए पूरी ताकत से चिल्लाकर घोषणा करने लगा," गुरु लाधो रे.....गुरु लाधो रे..."
तिउ मक्खन मगन भए गुर पाइया। चढ उच्च मंदर टेर सुणाइआ।।
आवो गुरु सिख मैं सतगुरु लांघा। जाकी महिमा अगम अगाधा।। (महिमा प्रकाश)
मक्खन शाह की गगनभेदी स्वर को सुन सारी संगत गुरु जी के दर्शन के लिए उभरी तथा गुरु जी के गुरु गद्दी पर विराजमान होने की घोषणा जनसाधारण तक पहुंचाई, जिससे नानक नाम लेवा संगत ने उनका दर्शन कर वंदना की। श्री गुलाब सिंह ने अपनी प्रसिद्ध कृति 'शहीदी प्रसंग' में तेग बहादुर के गुरु पद पर सुशोभित होने का वर्णन किया - तब मंजी सब ही छिप गई, तेज तरन ते जिउं नस गई। यो प्रकटे गुरु तेग बहादर, जन अपने की राखी चादर।।
गुरु तेग बहादुर जी की यात्राएं
अमृतसर यात्रा
गुरु अर्जुन देव जी द्वारा बनाए गए हरिमंदर साहिब में कालचक्र ऐसा चला कि छठें, सातवें और आठवें गुरु पंजाब के क्षेत्र और हरिमंदर साहिब से निरंतर दूरी पर ही रहे। गुरु तेग बहादुर अपने कुछ भक्तों और मक्खन शाह के साथ बकाला से निकलकर अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब जी के दर्शन करने पहुंचे।
1664 में जब गुरूजी पवित्र सरोवर में स्नान करने के पश्चात हरि मंदिर में माथा टेकने गए तो तत्कालीन हरिमंदिर साहिब के सेवादारों ने उनके सामने कपाट बंद कर दिए। वास्तव में उनको डर था कि कहीं गुरूजी हरिमंदिर साहिब पर विराजमान होकर उनकी आय का जरिया बंद न कर दें। (पुस्तक: राष्ट्रनायक- श्री गुरु तेगबहादुर, लेखक: हरमिंदर सिंह मलिक, पृष्ठ:42)
'सूरज प्रकाश' में लिखा है कि सेवादारों की ऐसी हरकत पर मक्खन शाह को काफी गुस्सा आया तथा उसने गुरु तेग बहादुर जी से हिंसा की आज्ञा मांगी, परंतु गुरु ने ऐसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं दी। गुरु जी ने शांत भाव से स्नेह पूर्वक बाहर से ही हरिमंदिर साहिब को प्रणाम किया तथा अकाल तख्त के समीप एक स्थल पर विश्राम किया, जो स्थान 'गुरुद्वारा थड़ा साहब' कहलाता है।
आनंदपुर साहिब की स्थापना
बिलासपुर के राजा दीपचंद, छठे गुरु हरगोबिंद जी के परम मित्र और भक्त थे। उनकी मृत्यु पश्चात उनकी पत्नी रानी चम्पा देवी ने दिवंगत आत्मा की शांति हेतु रियासत की कुछ भूमि गुरु जी को भेंट की, जिसको गुरु तेग बहादुर जी ने ₹500 की अदायगी पर लिया। उसी स्थान पर जून 1665 को गुरु जी ने अपनी माता के नाम पर चक्क नानकी नामक गांव की नींव रखी, जो आगे चलकर आनंदपुर के नाम से विख्यात हुआ।
इतिहासकार कनिंघम ने अपने ग्रंथ 'सिखों का इतिहास' में लिखा है कि, "गुरु तेग बहादुर ने यह अनुभव किया कि मुगल शासन की साम्प्रदायिकता एवं असहिष्णु नीती के कारण किसी सुरक्षित स्थान को केंद्र बनाया जाना चाहिए ताकि धर्म का प्रचार प्रसार किया जा सके।" कालांतर में 1699 को गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ का निर्माण कर एक संगठित सेना को तैयार किया।
सासाराम की यात्रा
बिहार (सासाराम) में नानक नाम लेवा संगत काफी विशाल मात्रा में थी, परन्तु भाई फागू जी की श्रद्धा निराली थी। उन्हें आभास था कि गुरु गद्दी के गुरु वहाँ आएँगे। उनके आगमन की आशा में सुन्दर भवन का निर्माण करवाया जिसमें भव्य ड्योढी और बहुत बड़ा प्रवेश द्वार था। जिसका गृहप्रवेश गुरु जी के चरण कमलों द्वारा ही किया जाएगा। भक्त की इच्छानुसार गुरु गद्दी के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी सासाराम पहुंचे तथा भाई फागू जी द्वारा निर्मित भवन का सुंदर प्रवेश कर 'संगत गुरुद्वारा' में परिवर्तित किया।
असम यात्रा
भारत राष्ट्र के भ्रमण दौरान जब गुरु तेग बहादुर जी असम पहुंचे, तब दिल्ली सल्तनत का भाग असम भी स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहा था। राजा चक्रध्वज सिंह के नेतृत्व में अहोम जाति समय-समय पर मुगलों को टक्कर देती रही। जनता का समर्थन मिलने के बाद अहोम जाति ने गुवाहाटी में मुगलों की टोली पर आक्रमण कर उनको भागने पर मजबूर किया।
औरंगजेब द्वारा रामसिंह को असम अभियान प्रमुख बनाकर भेजने की सोच थी कि, यदि युद्ध में रामसिंह मारा जाता तो शिवाजी के जेल से भागने का बदला ले लेता और यदि युद्ध में जीत जाता तो उसकी विजय से दिल्ली साम्राज्य का ही विस्तार होता।
रामसिंह गुरु घर के प्रति श्रद्धावान था। उसने श्री गुरु तेग बहादुर जी से मिलने का अवसर मिला गुरूजी भी असम में नानक नाम लेवा संगत के दर्शन हेतु तथा धर्म प्रचार हेतु असम यात्रा पर ही थे।
असम के ऐतिहासिक अभिलेखों और अंग्रेजी इतिहासकारों द्वारा गुरु तेग बहादुर जी की प्रेरणा से ही राजा चक्रध्वज और राजारामसिंह के मध्य शांति हो सकी, जिसके अंतर्गत विजयी क्षेत्रों पर मुगलों का अधिकार रहेगा, परंतु गुवाहाटी क्षेत्र पर अहोम साम्राज्य का अधिकार होगा।
इस संधि के स्वरूप अहोम साम्राज्य को गुवाहाटी में शासन कर अपनी सेना को मजबूत करने का अवसर मिला, जिसके परिणामस्वरूप अहोम असम के काफी भाग को अहोम साम्राज्य ने पुन: अपने शासन में शामिल किया।
बलिदान की संकल्पना
कट्टरवादी, मजहबी मानसिकता से ग्रस्त औरंगजेब ने खलीफ़ाओं, काजियों को खुश करने हेतु विभिन्न- विभिन्न प्रकार के कर और फतवा निकालकर भारत के मूल निवासियों का खून चूस रहा था। अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने फरमान निकाला जिसमें भारत के प्रसिद्ध मंदिरों को ध्वस्त किया जाना था। इस फरमान ने संपूर्ण भारत में हाहाकार मचा दिया।
अगस्त 1669 को वाराणसी स्थित विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर उस स्थान पर ज्ञानवापी नामक मस्जिद का निर्माण किया गया। गुजरात का सोमनाथ मंदिर भी औरंगजेब द्वारा ध्वस्त किया गया। 1670 के रमजान जैसे महीने में मथुरा के विख्यात केशवराय मंदिर को भी गिराया गया। क्रूर औरंगजेब के फरमान अनुसार मालवा, ओडिशा, जोधपुर, उज्जैन, उदयपुर, महाराष्ट्र, हैदराबाद आदि स्थानों पर भी विख्यात मंदिरों को ध्वस्त किया गया।
समाज को पुरुषार्थयुक्त करने तथा सद्भाव पुनः स्थापित करने हेतु समय की पुकार थी कि निस्वार्थ भाव से निर्भीक और शक्ति सम्पन्न कोई महापुरुष समाज का नेतृत्व करें। ऐसे दौर में नियति ने गुरु तेग बहादुर जी को चुना। भारत राष्ट्र को जिस गुणों की आवश्यकता थी, वह सभी गुण संत शिरोमणि गुरु तेग बहादुर जी के अतिरिक्त किसी में ना थे।
मुगलों के अत्याचारों का विरोध सर्वप्रथम गुरू नानक देव जी ने किया, उन्होंने बाबर को जाबर कहकर संबोधन किया तथा समाज को एकत्रित होने का संकेत दिया। गुरु परंपरा के प्रथम बलिदानी गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु नानक देव जी से प्रेरणा लेकर संपूर्ण अत्याचारों को अपने ऊपर लिया ताकि समाज पुरुषार्थ भाव को जागृत कर एकत्रित होकर राष्ट्र रक्षा कर सकें और उनके बलिदान से ऐसा हुआ भी। एक बार पुनः राष्ट्र को एकत्रित करने की आवश्यकता में गुरु तेग बहादुर जी राष्ट्र हेतु बलिदान पथ पर अग्रसर हुए।
पुत्र द्वारा बलिदान के संकल्पना की पुष्टि
संपूर्ण भारत राष्ट्र में नानक नाम लेवा संगत होने के कारण समाज में औरंगजेब द्वारा कुकृत्यों की खबरें गुरु जी को मिलती रही। 1671 में औरंगजेब ने इफ्तिकार खां को कश्मीर का गवर्नर बनाया। इस्लामीकरण करने हेतु औरंगजेब ने कश्मीरी ब्राह्मणों को अपना शिकार बनाया ताकि ब्राह्मणों को कमजोर कर भारतीय समाज का मेरुदंड तोड़ संपूर्ण राष्ट्र में धार्मिक हीनतापैदा कर संपूर्ण राष्ट्र का धर्मांतरण किया जा सके।
इतिहासकार मैकालिफ अनुसार, "इस्लामीकरण का सामूहिक प्रयोग सर्वप्रथम कश्मीर में धर्म परिवर्तन कर ही शुरू हुआ।" 'गुरु विलास पादशाही' के लेखक कोजर सिंह कलाल के अनुसार इफ्तिखार खां के आदेशों से जिन हिंदुओं ने इस्लाम धारण किया उनके जनेऊ का वजन सवा मन था। तत्कालीन समय की प्रचलित उक्ति के अनुसार जब तक औरंगजेब हिंदुओं के सवा मन जनेऊ उतरने की खबर ना पा लेता था, तब तक भोजन नहीं करता था।
कश्मीरी ब्राह्मणों के जीवन को समाप्त होता देख सभी पंडितों के समूह ने मट्टन में जाकर चर्चा करने का निर्णय लिया तथा पंडित कृपाराम ने इस चर्चा का नेतृत्व किया। सभा में चर्चा पर सभी की सहमति मिलते ही पंडित कृपाराम के नेतृत्व में कश्मीरी ब्राह्मणों का एक जत्था आनंदपुर साहिब पहुंचा। ब्राह्मणों और गुरूजी के मध्य हुई बातचीत के दौरान गुरूजी ने कहा कि इन समस्याओं का एकमात्र यही समाधान है कि कोई उच्च आदर्श और आचरण वाला सत्यवादी व्यक्ति राष्ट्र रक्षा हेतु अपना बलिदान दे। पास ही बैठे नौ वर्षीय बालक गोविंद राय ने कहा कि इस समय समाज में आपसे योग्य कौन हो सकता है?
गुरु तेग बहादुर जी के हृदय में बलिदान की जो संकल्पना थी, उनके पुत्र गोविंद राय द्वारा उसकी पुष्टि की गई। यह सुनकर गुरु तेग बहादुर जी से आज्ञा पाकर कश्मीरी ब्राह्मणों ने दिल्ली फरमान पहुंचाया कि, "यदि बादशाह गुरु तेग बहादुर का धर्म परिवर्तन करा सके तो उनके साथ समस्त भारत समाज स्वयं की इच्छा से इस्लाम स्वीकार कर लेगा।"
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इस क्षण को काव्यबद्ध किया-
जाओ विप्रवरों निर्भय हो, लिख दो बादसाह को पत्र, तेग बहादर, मुसलमान हो तो यह मत फैले सर्वत्र।
वही अग्रणी आज हमारा हम सब भारती उसके संग, देखें क्या उत्तर देता है इसका अन्यायी औरंग।।
राष्ट्रहित हेतु बलिदान
कश्मीरी ब्राह्मणों द्वारा भेजे गए पत्रों को देख औरंगजेब बौखला गया। उसने गुरु जी को तोड़ने के लिए भरपूर कोशिश की परंतु गुरु जी परमात्मा की इच्छा में मस्त और अडिग थे। गुरु तेग बहादुर जी के सामने उनके तीन श्रद्धालु- भाई सती दास, भाई मती दास तथा भाई दयाला दास को असहनीय यातनाएं दी ताकि उन्हें देखकर गुरु जी अपना धर्म परिवर्तन करने के लिए मान सके।
औरंगजेब की क्रूरता अपने चरम पर थी परंतु तेग बहादुर जी की मुख पर आभा देखते ही बनती थी। गुरु जी की आध्यात्मिक शक्ति के सामने औरंगजेब जैसा क्रूर शासक हार गया तथा तंग आकर उसने गुरु जी का सिर कलम करने का आदेश दिया।
नवंबर 1675 को मार्गशीर्ष की नवमी के दिन गुरूजी के मुख्य मंडल पर अपूर्व शांति विराजमान थी। स्नान पश्चात वट वृक्ष के नीचे गुरु जी ने जपुजी साहिब का पाठ किया। गुरु जी को शांतमय ढंग से पाठ करता देख जल्लाद जलालूद्दीन भी परेशान हो गया क्योंकि उनके मुख से मृत्यु का भय बिल्कुल भी ना झलक रहा था। जपुजी साहिब के पठन के बाद बादशाह के हुक्म अनुसार गुरु जी का सिर कलम कर दिया गया।
भारत राष्ट्र के नायक गुरु तेग बहादुर जी तथा संपूर्ण राष्ट्र को नीचा दिखाने के लिए औरंगजेब ने फरमान दिया कि कोई भी उनके पार्थिव शरीर को मुखाग्नि नहीं देगा। जिसका विरोध करते हुए भाई जैता जी ने रूई में लपेटकर उनके पार्थिव शरीर को अपने घर पर रखकर सारे घर को ही अग्नि भेंट कर दिया तथा शीश लेकर आनंदपुर साहिब के लिए निकल पड़े। भाई जैता जी द्वारा गुरु जी का शीश उनके पुत्र गोविंद राय को सौंपा तो गुरु गोबिंद राय ने 'रंगरेटा गुरु का बेटा' कहकर भाई जैता जी को संबोधित किया।
गोविंद राय ने पवित्र गुरबाणी का पठन कर गुरूजी के शीश का सम्मानपूर्वक दाह संस्कार किया।
राष्ट्र हेतु गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान को गोबिंद सिंह जी ने विचित्र नाटक में वर्णित किया-
तिलक जंजू राखा प्रभ ताका, कानो बड़ो कलु महि साका।।
साधना हेतु इति जिनि करी, सीस दिया पर सी न उचरी।।
धर्म हेतु साका जिन किया, सीसु दिया परु सिररू न दीया।।
बलिदान का प्रभाव और खालसा सृजन
महापुरुषों के आत्मबलिदान को पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ देखा जाना चाहिए, क्योंकि उन्हीं के बलिदान के कारण पूरा विश्व शांतमय बन सका है। गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान ने सारे भारत की सोई हुई जनता को झकझोर कर रख दिया। 1699 को गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान से प्रेरणा लेकर आनंदपुर साहिब में वैशाखी वाले दिन खालसा पंथ की स्थापना कर एक संगठित खालसा फौज का निर्माण किया, जिसकी आंधी से मुगल साम्राज्य भारत की धरती से समाप्त हो सका।
सारे भारत से एकत्रित हुई संगत का उपदेश दिया तथा सिंह उपाधि देकर समाज को पुरुषार्थ युक्त कर एकत्रित किया। गुरु जी के बलिदान से आहत पंडित कृपाराम ने गोबिंद सिंह जी की सेना में शामिल होकर चमकौर का युद्ध लड़ा और शहीद हुए। गुरु गोविन्द सिंह जी के द्वारा खालसा पंथ की स्थापना के बाद पंजाब का प्रत्येक हिंदू परिवार अपने ज्येष्ठ पुत्र को सिख बनाने लगा।
गुरु तेग बहादुर जी की काव्य रचना
गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी के बाद उसकी वाणी को 'आदिग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहिब' में नौवां महला के संकेत के अंतर्गत शामिल किया गया। उनमें 15 रागों से निबद्ध 59 शब्द और आध्यात्मिक चिंतन के 57 श्लोक हैं। गुरु तेग बहादुर जी का संपूर्ण वाणी धर्म, संस्कृति और दर्शन की ऐसी त्रिवेणी है जिसमें भक्त का मन पूर्णतः शुद्ध हो जाता है।
उनके काव्य रचनाओं की सौम्यता, सरलता और बौद्धगम्यता भक्त को भगवान की तरफ खींच ले जाती है। गुरु जी ने पंजाबी, ब्रज और अवधी भाषा में रचनाएँ की। गुरु जी की रचनाओं में भक्ति गंगा का प्रवाह होता है ताकि पर ब्रह्म की महत्ता को जनसाधारण तक बहुत सरलता से पहुंचाया जाए।
सारांश
पंजाब की गुरु परंपरा के नौवें गुरु तेग बहादुर जी ने राष्ट्रहित के लिए आत्म बलिदान दिया ताकि किसी भी राज्य में जन साधारण धार्मिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर सके। गुरूजी के जीवन में घटित सभी घटनाएं उनको ईश्वर की नियति के अनुसार करने के लिए थी ताकि समाज को सत्य ने अनुशासित धर्म का भाव समझाया जा सके।
सारे भारत राष्ट्र को ऐसे महापुरुष के जीवन से शिक्षा लेनी चाहिए कि किस प्रकार समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर सद्भाव स्थापित कर समाज का प्रतिनिधित्व करना है। तथा अपना सर्वस्व त्यागकर भी राष्ट्र की रक्षा का हर मुमकिन प्रयास करना चाहिए, ताकि सामाजिक सौहार्द पुन: स्थापित किया जा सके।