मंत्र विप्लव (भाग - 2) : भारत राष्ट्र बनाम विदेशी नैरेटिव

चाटुकार इतिहासकारों की तरफ से ऐसा अलगाववादी, विघटनकारी विमर्श आर्य बनाम द्रविड़ के नाम पर प्रस्तुत कर भारतीय राष्ट्र की अस्मिता को नुकसान पहुंचाया गया, जिसका मुख्य प्रभाव सामाजिक समरसता और सद्भाव पर हुआ। इस नैरेटिव को किसी राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा संरचनात्मक विरोध नहीं किया गया तथा अधिकतर प्रचार के कारण भारतीय समाज का बहुत विशाल भाग इस झूठे नैरेटिव को सही मानता है।

The Narrative World    05-Nov-2024   
Total Views |

Representative Image

भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसार ब्रह्माण्ड के इतिहास का चरमोत्कर्ष समय मानवीय सभ्यता के विकास और समृद्धि का है, जिस द्वारा ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को सकारात्मक रूप से संचारित किया गया। दिसंबर 2022 तक विश्व की कुल आबादी 800 करोड़ को पार कर गई थी, जिसमें लगभग 140 करोड़ हम भारतवासी ही हैं। यहाँ अक्सर एक प्रश्न नैरेटिव के तौर पर प्रचारित किया जाता है कि भारत देश था ही नहीं, भारत राष्ट्र नहीं है, आज ऐसे ही वैचारिक मतभेद पर चिंतन लेख के माध्यम से व्यक्त है।


भारत राष्ट्र का इतिहास


हिंदू, वह नाम है, जिससे भारत, हिंदुस्तान, इंडिया को दुनिया भर में युगों से जाना और पहचाना जाता है। यह सिंधु शब्द से उत्पन्न शब्द है, जो भौगोलिक रूप और भौगोलिक पहचान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार है। हजारों वर्षों पहले सिंधु नदी के तट पर वैदिक आर्य संस्कृति के गर्भ से मूल जीवन पद्धति का विकास कालांतर में हिमालय से लेकर सिंधु सागर तक हुआ। ऋग्वेद, विश्व के प्रथम लिखित ग्रंथ में इस स्थान को सप्तसिंधु अर्थात सात नदियों का क्षेत्र नाम दिया गया।

भारत या भारतवर्ष सबसे प्रभावी एवं प्रचलित नाम है। यह नाम राष्ट्रीयता के साथ-साथ राजनीतिक अभिप्राय भी है। प्राचीन इतिहास अनुसार, हजारों वर्षों पहले इस स्थान पर सम्राट भरत का प्रभुत्व था, जो कालांतर में भारत नाम का आधार बना।


विष्णु पुराण अनुसार - उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् | वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ||
अर्थात जो राष्ट्र समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में स्थित है, उस राष्ट्र का नाम भारत है और भारत के वंशजों को भारतीय कहा जाता है।


देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने 26 जनवरी 1965 को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में हिंदुस्तान नाम के संदर्भ में अपने प्राचीन साहित्य कुलार्णव तंत्र के एक श्लोक को संबोधित किया - "हिमालयं समारभ्य यावदिन्दु सरोवरम्। हिंदू स्थान मिति ख्यात बंद यन्ताक्षरयोगतः।।"
अर्थात हिमालय से लेकर इंदु सरोवर कन्याकुमारी तक फैली भूमि को हिंदुस्तान कहा गया है।


चीनी तीर्थयात्री और दार्शनिक ह्वेन त्सॉन्ग (602-664) ने भारत दौरे पर संस्कृति ज्ञान का अध्ययन कर यहाँ के साथ शास्त्रों को परिभाषित करते समय साहित्य में हिंदुओं को शिंतू नाम से संबोधित किया। भगवान बुद्ध के उपदेशों का प्रचार करने के लिए हिंदुस्तान से बाहर मध्य-पूर्वी एशिया के जाने वाले तीर्थयात्रियों के नाम और पहचान हिंदू संस्कृति का प्रतिबिम्ब रही है।


रामायण में वनवास के लिए श्री राम जी अयोध्या से चलते हैं, जो आजकल के उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब होते हुए लंबी यात्रा के बाद सुदूर दक्षिण के रामेश्वरम पहुँचते हैं, जहाँ से वे लंका जाने के लिए रामसेतु का निर्माण करते हैं। अर्थात भावनात्मक और सांस्कृतिक रूप से हजारों वर्ष पूर्व भी भारत एक ही राष्ट्र के रूप में जाना जाता था।


प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा के विकास और उसके प्रचार-प्रसार में आदि शंकराचार्य का महान योगदान है। उन्होंने भारतीय सनातन परम्परा को पूरे देश में फैलाने के लिए भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की जिनका मुख्य कार्य वैदिक परंपरा के मूल चार वेदों का सार्थक प्रचार करना था।


श्रृंगेरी मठ - भारत का दक्षिण भाग रामेश्वरम् - यजुर्वेद

गोवर्धन मठ - भारत का पूर्व भाग ओडिशा - ऋग्वेद

शारदा मठ - भारत का पश्चिमी भाग गुजरात- सामवेद

ज्योतिर्मठ - भारत का उत्तर भाग उत्तराखंड का बद्रिकाश्रम - अथर्ववेद


भारत की सनातन संस्कृति के स्तंभ शैवय सम्प्रदाय में पूज्यनीय ज्योतिर्लिङ्ग संपूर्ण भारत राष्ट्र में स्थापित है। ऐसा पौराणिक प्रमाण है कि जहाँ-जहाँ ज्योतिर्लिङ्ग स्थापित है, वहाँ स्वयं महादेव साक्षात विराजमान है। अर्थात सनातन संस्कृति में आराध्य स्वयं भारत राष्ट्र के एकाकीकरण का साक्ष्य है, ताकि संपूर्ण राष्ट्र में समरसता एवं सद्भाव स्थापित किया जा सके।


"सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥"


उपरोक्त श्लोक में सारे ज्योतिर्लिङ्गो के स्थानों को भारत राष्ट्र की सभी दिशाओं और स्थानों पर स्थापित शक्ति केंद्रों का समग्र रूप अखण्डता के भाव को दर्शाता है। सारे भारत राष्ट्र को एकात्मता का भाव प्रदान करने हेतु संपूर्ण ज्योतिर्लिंगों को श्लोक स्वरूप में लिखकर सारे भारत को एक राष्ट्र रूपी माला में पिरोया गया।


वास्तव में भारत राष्ट्र में अनेकों राज्य और अनेक सम्प्रदाय शामिल है, परन्तु संस्कृतिक स्वरूप में भारत अटक से कटक तक एक है। यही विनायक सावरकर, लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानंद तथा नाथूराम गोडसे जैसे महापुरुषों के अखंड भारत प्रति विचार हैं।

भारत राष्ट्र और आर्य बनाम द्रविड़ नैरेटिव


ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल अनुसार, "भारत ना एक देश है, न राष्ट्र है, यह एक महाद्वीप है जिसमें कई देश बसे हुए है।" भारत के कई वामपंथी इतिहासकारों ने विदेशी विचारधारा के प्रभावाधीन चर्चिल की इसी विचार का प्रचार प्रसार किया, जिसके अन्तर्गत वामपंथियों द्वारा स्वतंत्रता के समय भारत राष्ट्र के 17 टुकड़ों में विभाजन का भी प्रस्ताव दिया गया था।


वर्तमान समय में भी कई इतिहासकार तथा पत्रकार राजनैतिक कठपुतली बनकर भारत राष्ट्र की आत्मा राष्ट्रत्व पर निरंतर प्रहार करते रहते हैं, जिसका सबसे सरल माध्यम संपूर्ण भारत के आराध्य तथा भारतीय समाज के नरश्रेष्ठ प्रभु श्रीराम का अपमान करके सनातन संस्कृति के प्रति नफरत दिखाना आदि शामिल हैं।


मोहन दास गाँधी द्वारा 1909 में लिखी पुस्तक 'हिंदू स्वराज' में अंकित है, "आप (भारतीय) को अंग्रेजों द्वारा सिखाया गया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनाने में आपको सैंकड़ों वर्षों का समय लगेगा। यह बिल्कुल निराधार हैं। दो अंग्रेज जितने एक नहीं है, उतने हम भारतीय एक हैं और एक रहेंगे।" इस पर प्रश्न पूछने पर गाँधी जी लिखते हैं कि, "भारत में चाहे जिस मजहब संप्रदाय के लोग रह सकते हैं, उससे वह राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। भारत राष्ट्र को विदेशी मिटा नहीं सकते अपितु उसी में घुल मिल सकते हैं।"


भारत पर लगभग 200 वर्षों तक कब्जा करने वाले अंग्रेजी शासन ने शुरुआती समय 30 दिसंबर, 1600 में भारत के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन किया था। अमेरिका पर कब्जा हेतु स्थानीय निवासियों को' रेड इंडियंस' कहा गया, यदि भारत राष्ट्र यहाँ देश के तौर पर प्रसिद्ध नहीं था तो अंग्रेजों द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम भारत के इंडिया शब्द पर क्यों रखा गया?


वामपंथी इतिहासकारों तथा ब्रिटिश चाटुकारों द्वारा और असत्य पर आधारित विमर्श प्रचारित किया गया इसमें प्रमुख है,

आर्य आक्रमणकारी थे, जिन्होंने उत्तरी भारत पर आक्रमण कर मूल द्रविड नागरिकों को दक्षिण की तरफ धकेल दिया। इसको प्रमाण देने के लिए रामायण ग्रंथ का भी प्रयोग किया जाता रहा।

ब्राह्मणों द्वारा भारत के मूल निवासियों के प्रति अमानवीय व्यवहार को उचित ठहराने हेतु वैदिक ग्रंथों का निर्माण किया।


चाटुकार इतिहासकारों की तरफ से ऐसा अलगाववादी, विघटनकारी विमर्श आर्य बनाम द्रविड़ के नाम पर प्रस्तुत कर भारतीय राष्ट्र की अस्मिता को नुकसान पहुंचाया गया, जिसका मुख्य प्रभाव सामाजिक समरसता और सद्भाव पर हुआ। इस नैरेटिव को किसी राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा संरचनात्मक विरोध नहीं किया गया तथा अधिकतर प्रचार के कारण भारतीय समाज का बहुत विशाल भाग इस झूठे नैरेटिव को सही मानता है।


इस आर्य बनाम द्रविड़ नैरेटिव के पीछे कौन था, इसका तथ्यात्मक वर्णन करना मुश्किल है। परंतु इसका उद्देश्य भारतीय समाज में ब्राह्मणों का दानवीकरण कर समाज के मेरुदंड को ध्वस्त करना था, जिसके ध्वस्त होते ही सारा समाज लाचार होकर गुलामी मानसिकता में जकड़ जाता। इस विषैली मानसिकता के बीजारोपण के तार 16वीं शताब्दी से मिलते हैं।

जब उत्तर पश्चिमी भारत में इस्लामी प्रचार और आतंक शिखर पर था, तब दक्षिण भारत के गोवा में फ्रांसीसी पादरी सेंट जेवियर ने कैथलिक चर्च के मिशनरी रूप में कदम रखा। जिसका मुख्य उद्देश भारत में कैथोलिक चर्च के आदेश पर धर्मांतरण करना था, जिसका सबसे ज्यादा विरोध ब्राह्मण समाज ने किया। 31 दिसंबर 1543 में 'रोम सोसाइटी' को लिखे पत्र में जेवियर ने ब्राह्मणों को 'पैगन' बताते हुए कहा, "यदि ब्राह्मण विरोध नहीं करते तो हम सभी हिंदुओं को धर्मांतरित कर चर्च की शरण में ले आते। जब से मैं देश में आया हूँ तब से मैं केवल एक ही ब्राह्मण का मतांतरण कर सका।"


इस पत्र के परिणामस्वरूप कालांतर में कैथोलिक चर्च और पुर्तगाली ईसाई मिशनरी के आदेश पर 1559 तक दर्जनों मंदिरों तथा देवी देवताओं की मूर्तियों को ध्वस्त किया गया तथा हिंदू रीतिरिवाजों पर प्रतिबंध लगाया गया। 'गोवा इनक्विज़िशन' की अनुमति मिलते ही जेवियर ने मूल नागरिको के विरुद्ध मजहबी अभियान चलाया, जिसमें गैर कैथलिक लोगों की जीभ काटी गई, उनकी चमड़ी जीवित रहते ही उतार दी गई। इन कुकृत्यों का उल्लेख भारत रत्न डॉ भीमराव अंबेडकर ने भी अपने लेखन कार्य में किया है।


1606 में जेवियर के बाद रॉबर्ट डी नोबिली नई धर्मांतरित रणनीति के साथ भारत आए। उन्होंने देखा कि सनातन का दुष्प्रचार करने के बाद भी शेष हिंदू ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं, इसको काटने हेतु नोबिली स्वयं ब्राह्मण बन संयासी भेष धारण कर ईसाईयत का प्रचार करने लगा। भारत की स्थानीय भाषाओं में अपने धर्मग्रंथों को अनुवाद भी किया। उनकी श्वेत चमड़ी से लोगों का संदेह आने पर उसने स्वयं को रोम देश के उच्च कुल का ब्राह्मण बताया।

जेवियर नोबिली की घातक विचारधारा ने सिर्फ 1 साल के अंदर ही मानसिक विकृतिकरण कर काफी भारतीय समाज को धर्मांतरण कर दिया। वर्ष 1800 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में विवादित अनुच्छेद जोड़ कर न केवल ब्रितानी पादरियों और ईसाई मिशनरियों द्वारा स्थानीय भारतीयों के मतांतरण का मार्ग प्रशस्त किया। ब्रितानियों के सहयोग से सबसे पहले चर्चों और ईसाई मिशनरियों ने चेन्नई में हिंदू समाज में ब्राह्मणों के साथ स्वर्ण और शिक्षण वर्ग के लोगो का मतांतरण का प्रयास किया, किंतु जेवियर की भांति सफलता नहीं मिल सकी। इसके पश्चात ईसाई मिशनरियों ने अपनी रणनीति बदली और ब्राह्मणों का दानवीकरण करके हिंदुओं में उपेक्षित शोषित और वंचित वर्ग, जिन्हें वर्तमान समय में अनुसूचित कहकर संबोधित किया जाता है, उन्हें अपने मजहबी एजेंडे का शिकार बनाया।


इसी कालखंड में दक्षिण भारत में स्वाधीनता की भावना सुदृढ़ हो चुकी थी, जो मिशनरियों के लिए सबसे बड़ी रुकावट बनी। ब्राह्मणों का दानवीकरण कर तथा मिशनरी को राजनीतिक संरक्षण हेतु 1917 में साउथ इंडियन लिब्रल फेड्रेशन, जिसे 'जस्टिस पार्टी' नाम भी दिया गया, गठन किया। अंग्रेजों के प्रति अपनी वफ़ादारी सिद्ध करने के लिए जस्टिस पार्टी ने 13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार को न्यायिक प्रतिक्रिया में उचित तक ठहरा दिया।


वास्तविकता में अंग्रेजों ने भारत में शासन को शाश्वत बनाए रखने के लिए फूट डालो और राज़ करो की नीती को शुरू किया, उसका सर्वप्रथम दुष्प्रभाव देश तोड़कर नहीं अपितु भारत राष्ट्र की आत्मा सामाजिक बंधुत्व तोड़ कर हुआ, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप द्रविड़ आंदोलन बना, जिसमें रामास्वामी नायकर पेरियार एक नेता बनकर उभरे।


वर्ष 1947 आते-आते पेरीयार खुलकर इस्लाम और ईसाई मतांतरण के लिए प्रेरित करते थे। ब्रिटनी कुटिलता के ध्वजवाहक रामास्वामी नायकर पेरियार द्वारा द्रविड़ आंदोलन घृणा पर टिका हुआ है। इसलिए उन्होंने आर्य बनाम द्रविड़, ब्राह्मण बनाम गैर ब्राह्मण, हिंदी बनाम तमिल, दक्षिण भारत बनाम उत्तर भारत वगैरह राजनीतिक दर्शन प्रस्तुत किए। वर्तमान समय में भी दक्षिण भारत के द्रविड़ नेता अलगाववाद का मूल स्रोत आर्य आक्रमण सिद्धान्त अपनाए हुए है और उसके बिना तथाकथित द्रविड़वाद का कोई वैचारिक आधार नहीं है।


मैकॉले मार्क्सवादी विचारों के प्रशंसकों द्वारा भारतीय हिंदू समाज में ब्राह्मणों को अन्यायी कहा गया तथा समाज के समक्ष दो विकल्प छोड़े गए- 1. एक, अब्राहमिक मजहब अर्थात ईसाई या इस्लाम में मतांतरित हो जाए, 2. दूसरा नास्तिक या वामपंथी बन जाए।

ऐसे विचारों का बौद्धिक विरोध भारत रत्न डॉक्टर भीमराव बाबासाहब अंबेडकर ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से किया, परन्तु वर्तमान समय में बाबा साहेब के प्रशंसकों द्वारा ही ऐसे विशुद्ध विचारों का प्रचार प्रसार किया जा रहा है, जो एक चिंतन का विषय है।

आर्य नस्ल नहीं भाषा है

भारतीय वामपंथी विचार को द्वारा आर्य बनाम द्रविड़ नैरेटिव को यूरोपीय विद्वानों द्वारा आर्य को एक नस्ल या प्रजाति मान लिया गया। परंतु बाबा साहेब अम्बेडकर आर्य को प्रजाति या नस्ल नहीं मानते थे। अंबेडकर मैक्समूलर से सहमत थे कि आर्य कोई प्रजाति या नस्ल नहीं बल्कि एक भाषा है। आर्य का अर्थ भूमि जोतने वाला है। आर्य शब्द का प्रयोग सम्मान तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होने के लिए भी होता था। [पुस्तक: डॉक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर यात्रा के पद चिन्ह, लेखक: डॉक्टर कुलदीप अग्निहोत्री, पृष्ठ 86]

परंतु दुर्भाग्यवश पाश्चात्य विद्वानों ने इसी भाषा के आधार पर भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत तैयार किया। परंतु उनके विरोध में अंबेडकर ने बार बार कहा कि आर्य शब्द का संबंध न ना रक्त से है, ना ही शारीरिक ढांचे से, ना बालों से, इसका सीधा तात्पर्य यह है कि जो आर्य भाषा बोलते हैं, वह आर्य है। उदाहरण के लिए पंजाब में पंजाबी भाषा बोलने वाला हर व्यक्ति पंजाबी है, चाहे वे किसी भी धर्म, मजहब से संबंधित हो।

वह पूछते हैं कि ऐसा कौन सा साक्ष्य है जिससे पता चले कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया? तथा यहाँ के मूल निवासियों को अपने अधीन किया? यदि आक्रमण करने बाहर से आये तो किस स्थान से आए? आर्यों की उत्पत्ति का स्थान क्या है?

यदि आर्य लोगों ने भारत पर आक्रमण किया तथा यहाँ के मूल निवासियों को पराजित किया तो उसके संकेत वैदिक रचनाओं में मिलने चाहिए थे परंतु ऐसा नहीं है। अंबेडकर ने पी.टी. श्रीनिवासन आयंगर का उल्लेख किया है है, जिसके अनुसार वेद मंत्रों में जहाँ- जहाँ आर्य, दास और दस्यु शब्द का संदर्भ है, उसका पूजा पद्धति से संबंध है,ना की किसी प्रजाति को लेकर।

सारांश

मंत्र विप्लव अर्थात अपनी सुविधानुसार अपने लाभ हेतु तथ्यों को बदलकर पेश करना ताकि मिथ्या पर आधारित नैरेटिव का विस्तार हो सके। ब्रिटिश द्वारा तथा वर्तमान समय की वामपंथी गलियारे द्वारा ऐसे ही मिथ्या तथ्यों को उभारा गया ताकि भारत के सहिष्णु समाज को कमजोर कर राष्ट्रीय तथा बंधुत्व जैसे वैदिक विचारों का प्रवाह समाज की दिनचर्या से बाहर निकाला जाए। साथ ही भारत के स्थानीय निवासी भारत राष्ट्र और परम वैभव देने वाली माँ भारती के प्रति निष्ठा को त्याग वैचारिक तौर पर विदेशों की कठपुतली बने, जिससे देशी प्रभाव कम अपितु पाश्चात्य परंपरा का दुष्प्रभाव अधिक रहे।


रूसी वामपंथी तानाशाह स्टालिन ने कहा था कि, "जिस राष्ट्र के लोग देशी विचारों का त्याग कर विदेशी सोचवाले बन जाए तो उस राष्ट्र का गिरना तय है।" वामपंथी तथा समाज विरोधी नैरेटिव का विरोध भारतीय समाज को एकत्रित होकर एवं राष्ट्रवादी विमर्श के प्रचार प्रसार से करना होगा ताकि पुन भारत राष्ट्र को समरसता और उन्नति के मार्ग पर चलाया जा सके।


लेख

Representative Image
रजत भाटिया
स्तंभकार - Writers For The Nation