भारत-चीन युद्ध : नेहरू की अदूरदर्शिता और कम्युनिस्ट चीन का षड्यंत्र

06 Nov 2024 11:44:20

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यह अक्टूबर
-नवम्बर का ही समय था जब कम्युनिस्ट चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (चीनी सेना) ने भारत में घुसपैठ कर हमले को अंजाम दिया था और भारत एवं चीन के बीच युद्ध की शुरुआत हुई थी।


इस दौरान भारतीय राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह दिशाहीन था और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत अपने शत्रु को पहचानने में असमर्थ हुआ। वहीं नेहरू में दूरदृष्टि की कमी के चलते भारतीय सेना ना ही पूर्ण रूप से तैयार थी और ना ही उसके पास चीन की तुलना में संसाधन मौजूद थे।


इसी का परिणाम था कि चीन ने भारत में हमला कर 14,500 वर्गमील की जमीन (अक्साई चीन) को चीन ने हथिया लिया और जवाहरलाल नेहरू देखते ही रह गए। जवाहरलाल नेहरू की नेतृत्व क्षमता का आंकलन इसी से किया जा सकता है कि अपनी भूमि को बचाने युद्ध में सहायता के लिए उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी से भी सहयोग मांगा था।


एक तरफ जहां नेहरू 'हिंदी-चीनी भाई भाई' के झांसे में फंसे हुए थे, वहीं चीन ने भारत के विरुद्ध आक्रामक रणनीतियां जारी रखी थी। इसे समझने के लिए हमें 1950 से लेकर 1959 तक भारत और चीन के संबंधों के साथ-साथ उस ट्रिगर पॉइंट को समझना होगा जिसने युद्ध की स्थिति को पैदा किया।


“वर्ष 1949 में चीन (PRC) को मान्यता देने के बाद नेहरू की यह सोच थी कि इससे चीन को भारत के प्रति नरम रखा जा सकता है। इसके वर्ष 1954 में दोनों देशों के बीच पंचशील का समझौता हुआ, हालांकि कम्युनिस्ट चीन ने इस समझौते के किसी भी बिंदु पर अमल नहीं किया और अंततः नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण भारत को धोखा ही खाना पड़ा।”


चीन ने अपनी नियत 1954 में ही स्पष्ट कर दी थी, जब भारत ने मैकमोहन रेखा की वैधता को लेकर चीन से उसका पक्ष पूछा था, चीन ने इस दौरान इस सीमा रेखा को मानने से इंकार कर दिया था। इसके बाद दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर अस्पष्टता बनी रही लेकिन नेहरू ने इस मामले को लेकर कोई स्थायी समाधान खोजने का प्रयास नहीं किया।


वर्ष 1957 में भारतीय सेना की पेट्रोलिंग पार्टी को अक्साई चीन के क्षेत्र में निर्मित सड़कें दिखाई दी जो इस क्षेत्र को शिनजियांग और तिब्बत से जोड़ती थी। इसके बाद भी नेहरू के नेतृत्व में चीन के खिलाफ केवल कूटनीतिक विरोध किया गया, वहीं चीन बार बार अक्साई चीन के क्षेत्र को अपनी भूमि के रूप में दोहराता रहा।


भारत ने चीनी सेना के हटने तक किसी भी बातचीत से इंकार कर दिया लेकिन चीन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, उसकी सेना वहां डंटी रही।


इस बीच वर्ष 1959 को तीन ऐसी घटनाएं हुई जिन्होंने 1962 के युद्ध की नींव डाली, जिसमें शामिल है लोंगजु की घटना, कोंगका दर्रा की घटना और चीन द्वारा तिब्बत पर पूर्ण कब्जा।


यह तीनों ही ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि भारत पर चीन आगामी समय में बड़ा हमला कर सकता है, हालांकि यह नेतृत्व की विफलता थी कि उन्होंने इतने बड़े-बड़े संकेतों को भी नजरअंदाज करते हुए चीन पर भरोसा रखा।


एक रिपोर्ट आई थी कि वर्ष 2017 से चीन सीमाई क्षेत्रों के लगभग 600 गांवों को विकसित कर रहा है, जिसमें से कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो हैं तो भारतीय और भूटानी लेकिन वर्तमान में चीन के कब्जे में है।


इसी में एक क्षेत्र है अरुणाचल प्रदेश के अपर सुबनसिरी जिले का, जिसमें वर्ष 1959 से चीन नर कब्जा कर रखा है, इस क्षेत्र को लोंगजु कहा जाता है। यह वही क्षेत्र है जहां भारत और चीन के बीच सैन्य संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई थी। यह संघर्ष दलाई लामा के चीन से भागकर भारत आने कुछ महीनों बाद ही हुई थी।


दरअसल ऐसा माना जाता है कि दलाई लामा ने ल्हासा से भागने के लिए इसी रास्ते का उपयोग किया था जो ल्हासा को तवांग से जोड़ता है। यही कारण है कि चीन इस क्षेत्र को सामरिक दृष्टि से अपने लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है।


रक्षा विशेषज्ञ सेवानिवृत्त मेजर जनरल जीजी द्विवेदी और पीजेएस संधु का इस मामले में मानना है कि चीनी कम्युनिस्ट सरकार यही सोचती है कि तिब्बती विद्रोह के पीछे भारत का हाथ था और इसका उद्देश्य तिब्बत की स्वतंत्र कराना था। यही कारण है कि इस घटना ने चीनी कम्युनिस्ट सरकार को आक्रोशित कर दिया था।


इसके बाद चीन ने लोंगजु के ही समीप तिब्बत के मिगयितुं क्षेत्र में एक सैन्य पोस्ट स्थापित कर दिया और 23 जून 1959 को चीनी विदेश मंत्रालय ने भारतीय काउंसलर को एक पत्र सौंपते हुए चीनी क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की उपस्थिति और घुसपैठ का आरोप लगाया।


इसका जवाब देते हुए भारत ने स्पष्ट किया कि चीन जिस क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की उपस्थिति की बात कर रहा है वह चीन का भाग नहीं है। भारत द्वारा मिगयितुं को आधिकारिक रूप से चीनी क्षेत्र स्वीकार करने के बाद भी चीनी कम्युनिस्ट सेना ने लोंगजु स्थित भारतीय पोस्ट में 25 जून को हमला कर दिया।


एक तरफ जहां चीनी कम्युनिस्ट सैनिक भारतीय सैनिकों पर हमला कर रहे थे वहीं दूसरी ओर चीनी कम्युनिस्ट अधिकारी भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों से भारतीय सैनिकों की घुसपैठ की झूठी शिकायत कर रहे थे। इस दौरान चीनी कम्युनिस्ट सेना ने लोंगजु पर कब्जा कर लिया और फिर भारत दोबारा कभी इस जमीन को वापस नही ले पाया।

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लोंगजु की घटना के बाद एक और ऐसी घटना हुई जिसे जानना आवश्यक है। एक तरफ अरुणाचल प्रदेश से लगी सीमा में चीनी कम्युनिस्ट सेना द्वारा घुसपैठ की जा रही थी, वहीं दूसरी ओर लद्दाख का क्षेत्र भी सामान्य नहीं था।


1954 से लेकर 1959 के बीच चीन और भारत के सैनिकों का कई बार लद्दाख क्षेत्र में आमना-सामना हुआ, एक दूसरे को गन पॉइंट पर रखा गया और एक-दो दफे चीनी सेना ने भारतीय सैनिकों को अपने कब्जे में भी लिया। लेकिन यह हैरानी की बात है कि इतनी बड़ी बड़ी घटनाओं को भी भारत सरकार द्वारा छिपा दिया जाता था।


दरअसल नेहरू को चीन के प्रति अंधा विश्वास था और यही कारण है कि चीन द्वारा किए जा रहे अनैतिक कार्यों को छिपाने की भी भरपूर कोशिश की गई। नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में खुद कहा था कि जनता को वह जानकारी नहीं दी गई है जो चीन 1954 से करते आ रहा है।


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चीन ने 1954 के बाद से सीमाई क्षेत्रों में घुसपैठ, अतिक्रमण, सड़कों-इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण और भारतीय सैन्य कर्मियों की गिरफ्तारी घटनाओं को अंजाम दिया था, जिसे नेहरू ने पूरे देश से छिपाए रखा। नेहरू को इतनी बड़ी घटनाओं के बाद भी यह उम्मीद थी कि चीन शांति से इन मसलों पर हल निकालने के लिए राजी हो जाएगा।


लेकिन इस पत्र के एक महीने गुजरने से भी पहले चीन ने एक बार फिर अपना असली चरित्र दिखाया। चीनी कम्युनिस्ट सेना ने 21 अक्टूबर 1959 को लद्दाख के कोंगका दर्रा क्षेत्र में भारतीय सैनिकों पर हमला किया जिसमें 9 सैनिक बलिदान हुए। इस दौरान चीनी सेना ने 8 भारतीयों को अपने कब्जे में भी ले लिया था।


भारतीय रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यही वो घड़ी थी जिसने भारत और चीन के बीच सभी संबंधों को लगभग टूट की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। इसके बाद चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने भारत के प्रधानमंत्री नेहरू को सीमा समझौते एवं बातचीत में उलझाए रखा, वहीं दूसरी ओर अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार करता गया।


नेहरू इस उम्मीद में थे कि इस समस्या का समाधान बिना शौर्य या युद्ध के शांति पूर्वक हो जाएगा लेकिन उनकी अदूरदर्शिता ने भारत का को एक बार फिर खंडित किया। चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया और भारत का एक बड़ा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया।

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भारत और चीन के बीच हुए इस युद्ध के पीछे का एक कारण तिब्बत भी था। दरअसल चीन में कम्युनिस्ट शासन आने के बाद से ही चीनी कम्युनिस्ट तानाशाह माओ ज़ेडोंग का कहना था कि लद्दाख चीन की हथेली है और नेपाल, भूटान, लद्दाख, सिक्किम एवं अरुणाचल प्रदेश उस हथेली की उंगलियां।


इसी नीति पर आगे बढ़ते हुए माओ ज़ेडोंग ने वर्ष 1950 में ही तिब्बत पर कब्जा करने के लिए सेना भेज दी और 1959 तक तिब्बत पर कब्जा कर लिया। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा भारत आ गए और भारत ने दलाई लामा समेत विभिन्न तिब्बतियों को शरण दी। दलाई लामा को शरण देने के मामले से चीन तिलमिलाया हुआ था, वहीं दलाई लामा ने तिब्बत से भागने का जो मार्ग चुना था वह भी भारत के तवांग क्षेत्र से जुड़ा था।


ऐसा कहा जाता है कि तिब्बती समूह को शरण देना 1962 के युद्ध का तात्कालिक कारण बना था, लेकिन बावजूद इसके इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन की मंशा शुरू से ही भारत के प्रति ठीक नहीं थी और भारतीय नेतृत्व की विफलता एवं अदूरदर्शिता ने चीन को भारत पर हमला करने का एक बड़ा मौका दिया।

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