भारत के हृदय स्थल में स्थित त्रिपुरी के महान् कलचुरि वंश का 13 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अवसान हो गया था, फल स्वरुप सीमावर्ती शक्तियां इस क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए लालायित हो रही थी। अंततः इस संक्रांति काल में एक वीर योद्धा जादो राय (यदु राय) ने तिलवारा घाट निवासी एक महान ब्राम्हण सन्यासी सुरभि पाठक के भगीरथ प्रयास से त्रिपुरी क्षेत्रांतर्गत अंतर्गत गढ़ा कटंगा क्षेत्र में गोंड वंश की नींव रखी। यही आगे चलकर गढ़ा मंडला के साम्राज्य के रुप में सुविख्यात हुआ। (यह उपाख्यान चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य की याद दिलाता है)
कालांतर में यह साम्राज्य महान गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना गया। गौरतलब है कि अधिकांश गोंड राजाओं के मंत्री ब्राम्हण ही हुए हैं जो इस बात का प्रमाण है कि धर्म, वर्ण और जाति को लेकर भारत में कभी किसी प्रकार का वैमनस्य नहीं रहा। जिसे प्रकारांतर से अंग्रेजों और वामपंथियों के साथ परजीवी इतिहासकारों ने फैलाया है।
साम्राज्य का चरमोत्कर्ष का प्रारंभ महानायक अमान दास (संग्राम शाह) के समय आरम्भ हुआ। 14 नवंबर सन् 1480 में राजा अमान दास सिंहासनारुढ़ हुए थे। रामनगर प्रशस्ति के अनुसार गोंड राजाओं की वंशावली में 53 राजाओं के नाम मिलते हैं। इस प्रशस्ति के लेखक राजकवि और पंडित जय गोविंद हैं, इसके अनुसार 34वीं पीढ़ी में मदन सिंह का नाम आता है और यहीं से स्व की भावना से अभिप्रेत होकर गोंडवाना साम्राज्य का वास्तविक उत्कर्ष शुरू होता है।
मदन सिंह ने गढ़ा कटंगा के अंतर्गत मदन महल की पहाड़ियों की अनगढ़ चट्टानों में चट्टानों पर एक सुदृढ़ किले का निर्माण कराया, जिसे मदन महल का किला कहा जाता है। यह किला विश्व का सबसे छोटा परंतु सुरक्षित और सभी व्यवस्थाओं से परिपूर्ण अभेद्य किला माना जाता है।
राजा मदन सिंह ने गोंडवाना साम्राज्य की सीमाओं को विस्तार देना शुरू किया। मालवा के महाराजा महा लक्ष देव (महलक देव) से मैत्री स्थापित की। सन् 1290 में जब कड़ा और मानिकपुर के सूबेदार अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर आक्रमण करने की योजना बनाई। राजा महलक देव ने राजा मदन सिंह से सहायता मांगी, तब मदन सिंह ने अपने मंत्री विभूति पाठक से योजना बनाकर सहायता करने का वचन दिया।
महालक्ष देव (महलक देव) चाहते थे कि अलाउद्दीन खिलजी को रास्ते में ही रोक लिया जाए ताकि उन्हें युद्ध की तैयारी का समय मिल जाए। मालवा के मंत्री हरनंद (कोका) को मदन सिंह ने संदेश भेजा और गोंडी सेना को लेकर धसान नदी के किनारे डेरा डाल दिया।
वर्षा काल का समय था, अलाउद्दीन खिलजी की सेना जैसे ही नदी पार करने लगी और कुछ सेना नदी के बीच में थी तभी गोंडी सेना ने छापामार युद्ध शैली में जहरीले तीरों, अग्निबाण और लुकेत सांपों के बाणों से हमला बोल दिया। अचानक हमले से अलाउद्दीन खिलजी की सेना में खलबली मच गई।
उसकी नावें डुबो दी गई और उसके शस्त्रागार में आग लगा दी गई कुछ ही घंटों में अलाउद्दीन खिलजी पराजित हुआ, और पुन: कड़ा और मानिकपुर लौट गया। इस प्रकार गोंडवाना सेना की विजय हुई और मालवा नरेश महालक्ष देव ने राजा मदन सिंह के प्रति आभार व्यक्त किया।
मदन सिंह के उपरांत क्रमशः उग्रसेन, ताराचंद्र (रामकृष्ण), ताराचंद, उदय सिंह, मान सिंह, भवानीदास, शिवसिंह, हरनारायण, सबलसिंह, राजसिंह, दादीराय, गोरखदास (जबलपुर अंतर्गत गोरखपुर बसाया) अर्जुन दास (अर्जुन सिंह) और उसके उपरांत 48वीं पीढ़ी में अमानदास दास का जन्म हुआ।
अमान दास बाल्यकाल से ही पराक्रमी थे और युवा अवस्था तक आते-आते उन्होंने बृहत् गोंड राज्य की नींव डाली। स्व की भावना को केंद्र में रखते हुए साम्राज्य का विस्तार आरंभ किया।
सन् 1475 में अमान दास ने सत्ता संभाली ली थी और 1480 में विधिवत राज्याभिषेक हुआ, परंतु वास्तव में सन् 1484 में स्व का शंखनाद हुआ। माड़ौगढ़ अर्थात् मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने अचानक गढ़ा कटंगा पर हमला दमोह की ओर से किया। प्रारंभ में तो गोंड सेनाएं पीछे हटीं परंतु अवधूत बाबा की सलाह पर जबलपुर में जहां आज कृषि उपज मंडी है वहां चंडाल भाटा के मैदान में गोंड सेनाओं ने मोर्चा जमाया।
चंडाल भाटा के मैदान में गयासुद्दीन खिलजी की सेनाओं और राजा अमान दास की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। राजा अमान दास और सेनापति बघ शेर सिंह ने कहर बरपा दिया। अमानदास और शेर सिंह ने मिलकर गयासुद्दीन खिलजी को उसकी बची-खुची फौज समेत सिंगौरगढ़ की सीमाओं के परे खदेड़ दिया।
इस विजय में बाबा अवधूत अर्थात अघोरी बाबा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। चंडाल भाटा के युद्ध में सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी की भयानक पराजय हुई, अमान दास ने सुल्तान से छत्र एवं निशान छीन लिए और इस विजय के उपलक्ष्य में अमान दास ने संग्राम शाह की उपाधि धारण की।
इसी कालखंड में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी का भाई जलालुद्दीन लोदी बागी हो गया और बदनीयति से गढ़ा कटंगा में प्रवेश करने को उद्यत हुआ तब राजा संग्राम शाह ने उसे करारी शिकस्त देते हुए खदेड़ दिया। राजा संग्राम शाह के शौर्य और पराक्रम को देखते हुए इब्राहिम लोदी ने भी उनकी शाह की उपाधि को स्वीकार किया।
रामनगर की प्रशस्ति में लिखा है कि "प्रतापी अर्जुन सिंह का पुत्र संग्राम शाह था। जिस भाँति विशाल कपास का ढेर एक छोटी सी चिंगारी से नष्ट हो जाता है - उसी भांति उसके शत्रुगण तेजहीन हो गए थे। मध्यकाल का सूर्य भी उसके प्रताप के सामने धूमिल सा दिखाई देता था। मानो सारी पृथ्वी को जीत लेने का उसने निश्चय किया हो।" तदनुसार उस ने 52 गढ़ों को जीत लिया था। ये गढ़ या किले उच्च पर्वतीय श्रेणियों पर स्थित थे जो विशाल प्राचीरों और बुर्जियों से परिवेष्ठित होने के कारण दुर्भेद्य समझे जाते थे। गोंडो में तो यह कहावत ही प्रचलित हो गई है कि "आमन बुध बावन में।"
"वज्रप्रायै: पर्वत प्रौढ़ गाढ़ै सप्रकारैरम्बुभिश्चयाक्षयाणि।।
द्वापंचाशद्घेन दुर्गाणि राज्ञां निर्वृत्तानि क्षोणिचक्र विजित्य।।
राजा संग्राम शाह भगवान् भैरव का परम भक्त थे इसलिए उनके राज्य का झंडा भगवा था। उन्होंने बाजनामठ की स्थापना करवाई थी और भैरव की कृपा से वो आजीवन अपराजेय रहे। राजा संग्राम शाह ने सिक्के चलवाए, अनेक मंदिर और मठों का निर्माण कराया इसके साथ ही जल प्रबंधन के अंतर्गत तालाबों का निर्माण और जीर्णोद्धार कराया। उनका राजमहल, संग्राम सागर और संग्रामपुर आज भी उनकी अमिट स्मृति के प्रतीक हैं।
राजा संग्राम शाह उत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थितियों से भलीभांति परिचित थे। उत्तर भारत में शेरशाह ने हुमायूं को परास्त कर सूर वंश की नींव डाली थी। शेरखां (शेरशाह) साम्राज्य विस्तार कर रहा था और जैसे ही उसने बुंदेलखंड की ओर रुख किया वैसे ही कालिंजर के महा प्रतापी राजा कीरत सिंह की चिंताएं बढ़ गईं। उन्होंने गोंडवाना के महा प्रतापी राजा संग्राम शाह से सहायता मांगी यहीं से राजा संग्राम शाह और कालिंजर के राजा कीरत सिंह के मध्य मैत्री स्थापित हुई।
राजनीतिक संधि हुई और उसे प्रगाढ़ करने के लिए संग्राम शाह ने अपने सुपुत्र दलपति शाह का विवाह कीरत सिंह की वीरांगना पुत्री रानी दुर्गावती से करने का प्रस्ताव रखा, जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। इस तरह राजा संग्राम शाह ने "स्व" का शंखनाद कर "स्व" की सिद्धि भी प्राप्त की।
सन् 1541 में एक समृद्ध और सुदृढ़ गोंडवाना साम्राज्य को अपने योग्य पुत्र दलपति शाह को सौंपकर महा महारथी राजा संग्राम शाह पंच तत्वों में विलीन हो गए। उनके स्वर्गारोहण पर आज भी एक वेदना से संपृक्त लोक गीत गाया जाता है जिसकी प्रथम पंक्ति है - "कहाँ गए राजा अमान? वन की रौवे चिरैया!"
गोंडवाना के महा प्रतापी राजा संग्राम शाह ने सन् 1480 से सन् 1541 तक कुल 61 वर्ष शासन किया जो कि संभवतः भारतीय इतिहास में सर्वाधिक शासनावधि है।
लेख
डॉ. आनंद सिंह राणा
विभागाध्यक्ष
श्रीजानकीरमण महाविद्यालय
इतिहास संकलन समिति महाकौशल।