बीते एक दशक से राहुल गांधी के बयानों पर यदि नजर डालें तो वो देश विरोधी तत्वों, असामाजिक गतिविधियों से जुड़े लोगों एवं विदेशी षड्यंत्रकारियों के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए दिखाई दे रहे हैं। चाहे वो 'जाती जनगणना' जैसे विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाना हो या भारत विरोधी शक्तियों के साथ मिलकर नीतियाँ बनाना हो, राहुल गांधी ने हर बार देशी विरोधी साजिशों में शामिल रहे तत्वों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से साथ दिया है।
इसके अलावा ईसाई मिशनरियों की अवैध गतिविधियों से लेकर जनजाति समाज को बांटने की रणनीति बनाने वाले तत्वों के एजेंडे को भी राहुल गांधी परोक्ष रूप से आगे बढ़ा रहे हैं। इसी क्रम में राहुल गांधी ने अब जनजाति समाज के बीच एक बार फिर भ्रम का मायाजाल फैलाने का कार्य किया है।
राहुल गांधी ने अपनी झारखंड की चुनावी यात्रा के दौरान सिमडेगा क्षेत्र में अपनी चुनावी रैली में जनजाति समाज को 'वनवासी' कहे जाने पर ना सिर्फ आपत्ति जताई है, बल्कि उस एजेंडे को हवा देने का प्रयास किया है जिसे विदेशी षड्यंत्रकारी वर्षों से भारत में फैला रहे हैं।
राहुल गांधी ने सिमडेगा के कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार करते हुए चुनावी सभा में कहा कि 'हम आपको 'आदिवासी' कहते हैं, लेकिन भाजपा आपको वनवासी कहती है। अंग्रेज भी आपको वनवासी कहते थे, तब बिरसा मुंडा जी आपके जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लड़े। आज हम भी आपके हक के लिए लड़ रहे हैं। बीजेपी आपका जल-जंगल-जमीन छीनना चाहती है, इसलिए वह आपको वनवासी कहती है। 'आदिवासी' का मतलब होता है - देश का पहला मालिक। वहीं वनवासी का मतलब है कि देश में आपका कोई अधिकार नहीं है। लेकिन आप आदिवासी हैं और देश पर सबसे पहला अधिकार आपका है।'
राहुल गांधी ने इस चुनावी सभा में कांग्रेस की वही पुरानी तुष्टिकरण और 'बांटों एवं राज करो' की नीति अपनाते हुए यह बयान तो दे दिया है, लेकिन इसके पीछे एक सोची-समझी गहरी साजिश है। जनजाति बाहुल्य विधानसभा क्षेत्र में चुनाव से पूर्व राहुल गांधी का यह बयान भले ही चुनावी राजनीति के बीच एक सामान्य बयान लगता हो, लेकिन वास्तविकता यह है कि इस एक बयान के पीछे कई तरह के षड्यंत्र छिपे हुए हैं।
इन षड्यंत्रों को समझने से पूर्व सबसे पहले भारतीय संविधान में जनजाति समाज की स्थिति को लेकर यह समझना भी आवश्यक है कि संविधान या भारत सरकार स जुड़े किसी आधिकारिक संस्था में जनजाति समाज को 'आदिवासी' या 'एकमात्र मूलनिवासी' नहीं कहा गया है। जनजाति समाज के लिए अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग सभी स्थानों पर दिखाई देता है।
ऐसा नहीं है कि संविधान निर्माण के दौरान संविधान सभा के सदस्यों ने इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की, दरअसल आदिवासी से लेकर विभिन्न शब्दों पर चर्चा करने के बाद संविधान सभा ने यह निर्णय लिया था कि इस समाज के लिए अनुसूचित जनजाति शब्द सबसे उपयुक्त है। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंच में भारत ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा था कि भारत में जितने भी नागरिक हैं वह भारत के 'मूलनिवासी' हैं, सिर्फ जनजाति ही नहीं। यह कथन भी इस बात की पुष्टि करता है कि भारत सरकार का आधिकारिक मत क्या कहता है।
अब आते हैं हम राहुल गांधी के बयान पर, जिसमें राहुल गांधी ने कहा है कि जनजाति समाज को 'आदिवासी' नहीं कहा जरा है। दरअसल 'आदिवासी' एक ऐसा शब्द है जिसे ब्रिटिश ईसाइयों ने भारतीय समाज को विभाजित करने के लिए 1930 के दशक में भारत में प्रसारित किया था। अंग्रेज ईसाइयों की दमनकारी नीतियों का जिस प्रकार से वनवासियों ने विरोध किया था और इस क्रांति के काल में वनवासी समाज समेत सर्व समाज के लोगों ने एकजुट होकर आंदोलनों को अंजाम दिया, इसके बाद अंग्रेज ईसाइयों ने भारतीयों को विभाजित करने के लिए ऐसी चाल चली थी।
यह संभव नहीं लगता कि राहुल गांधी जैसे विपक्षी पार्टी के शीर्ष नेता को यह जानकारी ना हो कि वह किस षड्यंत्र का हिस्सा बन रहे हैं, जबकि यह जरूर हो सकता है कि इसी विभाजनकारी और षड्यंत्रकारी विचार को आगे बढ़ाने हेतु उन्होंने एक नई शुरुआत कर दी हो।
राहुल गांधी कह रहे हैं कि जनजाति समाज को अंग्रेज़ 'वनवासी' कहते थे, तो यह एक सरासर झूठ है। जबकि जनजाति समाज को कमज़ोर करने, उन्हें तोड़ने और उनका आधार ख़त्म करने लिए हाई अंग्रेजों ने 'आदिवासी' शब्द का उपयोग किया था, जिसे अभी राहुल गांधी कह रहे हैं।
जहां तक बात है वनवासी शब्द की, तो यह ऐसा शब्द है जो भारतभूमि पर सहस्त्राब्दियों से बोला, सुना और लिखा जा रहा है। राहुल गांधी ने जिस तरह से 'वनवासी' शब्द का अर्थ पिछड़ेपन या समाज के निचले तबके से लगाया है, वह ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी गलत साबित होता है।
दरअसल भारत में सदैव से ही अरण्य संस्कृति विराजमान रही है, यहां मानवीय सभ्यता के विकास को वन्य या नगर की श्रेणी में नहीं बांटा जाता, बल्कि नगरीय संस्कृति एवं वन्य संस्कृति एक दूसरे की पूरक मानी जाती रही है। वनवासी शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है, वन में निवास करने वाला।
ऐतिहासिक परिपेक्ष्य एवं दृष्टिकोण से इस शब्द को समझे तो भगवान श्रीराम ने भी वनवासी का रूप धारण किया और इसी रूप में उन्होंने वनवासियों के ही सहयोग से लंका पर विजय प्राप्त की। आज हम जिस आत्मनिर्भरता या 'वोकल फ़ॉर लोकल' की बात करते हैं, दरअसल यह प्रणाली अरण्य संस्कृति में पहले से ही मौजूद थी।
खनिजों की परख से लेकर लौह अयस्कों का उपयोग एवं मृदा, काष्ठ एवं धातुओं से शिल्प निर्माण से लेकर अपने भोज्य पदार्थों से जुड़े अनाजों के उत्पादन तक, इन सभी क्षेत्रों में वनवासी समाज ना सिर्फ आत्मनिर्भर था बल्कि उनके द्वारा निर्मित एवं उत्पादित वस्तुएं नगरों एवं ग्रामों की ओर भेजी जाती थी।
अर्थात, वनवासी समाज अनुसार कृषक, शिल्पकार, व्यापारी, कुम्हार, वैद्य, वास्तुकार, उत्पादनकर्ता समेत उन सभी स्वरूपों में मौजूद था जिसे वर्तमान समय में इंजीनियर, डॉक्टर और उद्योगपति समेत अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोगों के रूप में जानते हैं।
इसके अलावा ऋषि-मुनियों की तपोस्थली से लेकर ज्ञान स्थली भी वन्य क्षेत्र ही रही है। जब 'सिद्धार्थ' को बुद्ध बनना था तब भी उन्होंने वनवास मार्ग चुना था, जब 'वर्धमान' को महावीर बनना था तब उन्होंने भी वन्य मार्ग को चुना था, राम वनवासी बनकर ही भगवान श्रीराम के रूप में पूजे गए, इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वह अरण्य संस्कृति और 'वनवासी' स्वरूप ही था जिसने ज्ञान के मार्ग को खोला और भारतीय समाज को राम, बुद्ध और महावीर दिए।
दरअसल भारत में अंग्रेज ईसाइयों के आने से पूर्व तक वनवासी समाज ना ही पिछड़ा था और ना ही नगरीय संस्कृति पर निर्भर था। वनवासी समाज ही वन्य एवं पहाड़ी क्षेत्रों का असली स्वामी था। इन क्षेत्रों में बहने वाली नदियां भी उसी की थी और इन क्षेत्रों में उन पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं था।
आज राहुल गांधी जिस जनजाति समाज को 'आदिवासी' कहने पर जोर दे रहे हैं, दरअसल सच्चाई यही है कि वनवासी समाज 'आदिवासी' बनने के बाद ही अपनी उस स्वतंत्रता को खोता चला गया जो उसे वनवासी रहते प्राप्त थी।
आज जिस जल-जंगल-जमीन की बात की जाती है, उसकी वास्तविकता यह है कि अंग्रेज ईसाइयों ने ही इनका राष्ट्रीयकरण किया था। पहाड़ एवं जंगल ब्रिटिश ईसाई सरकार के हो गए थे। इसी नीति को अपनाते हुए नेहरू और आगे की सरकारों ने शासन किया।
इस दौरान वनवासियों को 'आदिवासी', 'मूलनिवासी' और 'जनजाति' जैसे शब्दों में उलझाए रखा, वहीं इस पूरे कालखंड में उनकी शिल्पकला, वास्तुकला, जीवनशैली, रीति-परंपरा एवं उनकी संस्कृति का ह्रास किया।
आज हम जो जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों में पिछड़ेपन की बात करते हैं और विकास की कमी की बात करते हैं, दरअसल यह अंग्रेज ईसाइयों और उसके बाद नेहरू के नेतृत्व में शुरू हुई कांग्रेस सरकार की देन है, जिसे अब बदलना और समझना आवश्यक है।
इन सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि वनवासी शब्द ना ही पिछड़ेपन का पर्याय है और ना ही किसी प्रकार के निम्न स्तर का सूचक, बल्कि वनवासी शब्द भारतीय सनातन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो सहस्त्राब्दियों से आत्मनिर्भरता, निर्भयता, स्वावलंबन एवं ज्ञान का परिचायक है। राहुल गांधी अपने जिस षड्यंत्र का हिस्सा जनजाति-वनवासी समाज को बनाने का प्रयास कर रहे हैं, वह ना सिर्फ भारत देश के लिए बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज के लिए घातक है।