भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास केवल ब्रिटिश ईसाइयों के विरुद्ध किए गए संघर्षों के रूप में ही देखा जाता है, लेकिन ब्रिटिश/यूरोपीय ईसाइयों के आने के पूर्व भी जो इस्लामिक आक्रमणकारी भारत आये और उनके विरुद्ध 9वीं से 18वीं शताब्दी तक भारतीयों के संघर्ष की गाथा बताना और उसे जानना भी आवश्यक है। इस कालखंड में कई ऐसे प्रतापी जनजातीय योद्धा हुए जिन्होंने इस्लामिक आक्रांताओं को ना सिर्फ बुरी तरह पराजित किया बल्कि उन्हें वर्षों तक सीमावर्ती क्षेत्रों तक खदेड़ कर रखा। ऐसे ही एक महान प्रतापी जनजाति नायक हुए, पूंजा भील। पूंजा भील, जो भील जनजाति समाज से थे और जिन्होंने इस्लामिक आक्रांता अकबर की सेना को हल्दीघाटी के युद्ध में नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया था।
दरअसल पूंजा भील की तुलना यदि हम चित्तौड़ के महाराणा प्रताप से करें, तो इसमें जरा भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। क्योंकि पूंजा भील ने चित्तौड़ के अभेद्य किले को बचाने के लिए महाराणा प्रताप का जिस तरह से साथ दिया था, उस वीरता की गाथा आज भी चित्तौड़ के कण-कण में समाहित है।
पूंजा भील का जन्म वर्तमान राजस्थान के मेरपुर गांव में 5 अक्टूबर के दिन हुआ था, जहां उनके पिता क्षेत्र के मुखिया थे। पिता की मृत्यु के पश्चात मात्र 14 वर्ष की आयु में पूंजा भील मेवाड़ के मेरपुर रियासत के मुखिया बने। निडरता, साहस, युद्ध कौशल एवं अद्भुत नेतृत्व क्षमता के कारण पूंजा भील की प्रसिद्धि चहुंओर होने लगी। इस बीच मेवाड़ पर इस्लामिक आतंक का ऐसा साया छाया, जिसने पुंजा भील को 'राणा' पूंजा भील बना दिया।
वर्ष 1576 में इस्लामिक आक्रान्ता अकबर द्वारा चित्तौड़ गढ़ पर कब्जा कर लिया गया, जिसके बाद महाराणा प्रताप के समक्ष विकट स्थिति आन पड़ी थी। स्थितियां ऐसी हो चुकी थी कि अकबर के विरुद्ध महाराणा प्रताप के पक्ष में उनके सगे-संबंधियों ने भी साथ छोड़ दिया था। यहां तक कि महाराणा के भाई शक्तिसिंह ने भी उनका साथ छोड़ दिया था।
इसी दौरान जब महाराणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे, तभी उनकी भेंट पूंजा भील से हुई। महाराणा प्रताप ने उन्हें वस्तुस्थिति बताई, जिसके बाद पूंजा भील ने उन्हें वचन दिया कि वे मेवाड़ की रक्षा के लिए महाराणा का सहयोग करेंगे। इसके बाद महाराणा प्रताप ने उन्हें अपना भाई कहकर गले लगाया था।
इसके बाद वह भीषण युद्ध हुआ जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने तोड़-मरोड़कर पेश किया, वह था हल्दीघाटी का युद्ध। वामपंथी इतिहासकारों ने इस युद्ध में अकबर के विजय की घोषणा की, लेकिन अंततः सत्य बाहर आया और यह पता चला कि मुगलों की लाखों की सेना भी इस युद्ध को नहीं जीत पाई थी।
पूंजा भील के साथ मेवाड़ के हजारों भील सैनिकों और लड़ाकों ने कदम से कदम मिलाया और मुगल आक्रान्ताओं को मार भगाया। पूंजा भील और महाराणा प्रताप ने भील योद्धाओं के साथ मिलकर गुरिल्ला युद्धनीति को अपनाया और मुगलों को जीतने नहीं दिया।
मेवाड़ की रक्षा के लिए पूंजा भील द्वारा दिखाए गए इस शौर्य के कारण उन्हें 'राणा' पूंजा भील कहा गया। महाराणा प्रताप ने उन्हें अपना भाई कहा। राणा पूंजा भील का नाम भारतीय इतिहास में वीरता और निष्ठा का प्रतीक बन चुका है। हल्दीघाटी के युद्ध में राणा पूंजा और भला सेनानियों द्वारा रचे गए इतिहास का सम्मान करते हुए मेवाड़ के राजचिन्ह एवं ध्वज को बदला गया, जिसमें तत्पश्चात एक ओर राजपूत एवं दूसरी ओर भील प्रतीक चिन्ह अपनाया गया।
“गूँज उठी थी हल्दीघाटी घोड़ों की इन टापों से।
भीलों की एक सेना लेकर राणा लड़ता मुगलों से॥”