भारतीय संविधान को खतरा किससे ?

सही मायनों यदि देश के संविधान पर कभी खतरा आया था, तो वह 1975-77 का आपातकाल था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश पर थोप दिया था। कांग्रेस इन दिनों न्यायापालिका के विवेक और निष्पक्षता पर भी सवाल उठा रही है। उन्हें 1970-80 का दौर याद करना चाहिए।

The Narrative World    21-Dec-2024   
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संसद में संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर चर्चा हुई। इस दौरान नेता विपक्ष और कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने हिंदू समाज को फिर से निशाने पर ले लिया। उन्होंने एक हाथ में संविधान और दूसरे में हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथमनुस्मृतिकी प्रति को पकड़ते हुए कहा देशमनुस्मृतिसे नहीं चल सकता।


यह ठीक है कि संविधान को खतरा है, परंतु क्या यहमनुस्मृतिसे है? भारतीय संविधान जिन मूल्यों पर स्थापित है, वह देश की सनातन संस्कृति से प्रेरित जीवनमूल्योंबहुलतावाद, लोकतंत्र, सह-अस्तित्व और सेकुलरवाद पर आधारित है। इन तत्वों का लाभ देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन में सभी को समान मिले, उसकी व्यवस्था करने का दायित्व कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर है। संक्षेप में कहे, तो भारतीय संविधान और उसमें समाहित मूल्यों की सुरक्षा की एकमात्र गांरटी स्वतंत्र भारत का हिंदू चरित्र ही है।


राहुल गांधी ने जिसमनुस्मृतिको कलंकित करने का प्रयास किया, वह कालजयी सनातन सभ्यता का हिस्सा जरुर है, परंतु वह शाश्वत नहीं है। सनातन का अर्थ हैचिर पुरातन, नित्य नूतन। कालातीत हिंदू समाज ने समय के अनुसार स्वयं को बदला और अपने जीवनमूल्योंबहुलतवाद, लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता की छाया में ढाला है।


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स्वयं गांधीजी ने इस विषय पर 4 मई 1928 को एक पत्र लिखते हुए कहा था: “...मैं मनुस्मृति को बुरा नहीं मानता। उसमें काफी कुछ प्रशंसनीय है... उसमें कुछ बुरा भी है। सुधारक को अच्छी चीज़ें ले लेनी चाहिए और बुरी चीज़ें छोड़ देनी चाहिए।


यह उन्हीं गांधीजी के विचार हैं, जिन्होंने सिख गुरुओं की परंपरा से लेकर स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, वीर सावरकर, डॉ.अंबेडकर, डॉ.हेडगवार आदि सहित कभी भी अस्पृश्यता जैसे सामाजिक कुरीतियों का समर्थन नहीं किया और इन्हीं महापुरुषों की स्वतंत्र भारत में संविधान निर्धारित आरक्षण व्यवस्था के पीछे बहुत बड़ी प्रेरणा रही है।


अक्सर, ‘मनुस्मृतिके बहाने अस्पृश्यता रूपी सामाजिक कुरीतियों के लिएब्राह्मणवादको कटघरे में खड़ा किया जाता है। परंतु संविधान-निर्माता डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने छुआछूत के लिए कभी ब्राह्मण समाज को कलंकित नहीं किया, जैसा आज स्वयंभू अंबेडकरवादी, स्वघोषित गांधीवादी या वामपंथी करते है।


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अपनी रचना में डॉ. अंबेडकर ने लिखा था— “मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मनु ने जाति कानून नहीं बनाया... यह वर्ण-व्यवस्था मनु से बहुत पहले से अस्तित्व में थी।उन्होंने इसके लिए ब्राह्म‍णों को कोई दोष नहीं देते हुए लिखा, “ब्राह्म‍ण कई दूसरी चीजों के दोषी हो सकते हैं... किंतु गैर-ब्राह्म‍ण आबादी को जाति-व्यवस्था में बांधना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था।


वामपंथी, जिहादी और सेकुलरवादी गुट वर्षों सेसामाजिक अन्यायोंकी बात तो करते हैं, लेकिन उनका असली मकसद इनका समाधान करना नहीं, बल्कि समाज में जातीय संघर्ष को बनाए रखना होता है।


इस्लाम के नाम पर जब भारत विभाजित हुआ, तब पाकिस्तान ने शरीयत आधारित वैचारिक अधिष्ठान को अपनी व्यवस्था का आधार बनाया, जिसेकाफिर-कुफ्र-शिर्कअवधारणा से प्रेरणा मिलती है। यही कारण है कि वहां हिंदू-सिख आबादी 1947 में 15-16 प्रतिशत से घटकर आज डेढ़ प्रतिशत रह गई है, शिया-सुन्नी-अहमदिया आदि इस्लामी संप्रदायों में खूनी टकराव है।


यही हाल बांग्लादेश का भी है, जहां उदारवादी सरकार के हालिया तख्तापलट के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा चुन-चुनकर हिंदुओं को निशाना बनाया जा रहा है। मुस्लिम बहुल कश्मीर में भी साढ़े तीन दशक पहले इसका भयावह रूप दिख चुका है।


ऐसा क्यों हुआ, उसका कारण डॉ अंबेडकर ने अपनी किताबपाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडियामें बताते हुए लिखा था, “इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौमिक बंधुत्व नहीं है। यह केवल मुसलमानों के लिए मुसलमानों का बंधुत्व है... जो इस समुदाय से बाहर हैं, उनके लिए केवल तिरस्कार और शत्रुता है। इस्लाम कभी किसी सच्चे मुसलमान को यह अनुमति नहीं देता कि वह भारत को अपनी मातृभूमि माने और किसी हिंदू को अपना आत्मीय बंधु समझे।अन्य गैर-मुस्लिमों की भांति दलित भी इस्लाम मेंकाफिरहै, जिनकी नियति भी पहले से निर्धारित है।


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राहुल के सहयोगी वामपंथियों का लोकतंत्र-संविधान में कितना विश्वास है, इसका उत्तर भी बाबासाहेब अंबेडकर के 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए भाषण में मिल जाता है। उनके अनुसार, “...कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा की तानाशाही सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहती है। वे भारतीय संविधान की निंदा इसलिए करते हैं कि वह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है...चूंकि वामपंथी विचारधारा के केंद्र में हिंसा और प्रतिशोध है, इसलिए विश्व में जहां-जहां उनकी सत्ता रही, वहां वे संतुष्ट और खुशहाल समाज का निर्माण नहीं कर पाए।


सही मायनों यदि देश के संविधान पर कभी खतरा आया था, तो वह 1975-77 का आपातकाल था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए देश पर थोप दिया था। कांग्रेस इन दिनों न्यायापालिका के विवेक और निष्पक्षता पर भी सवाल उठा रही है। उन्हें 1970-80 का दौर याद करना चाहिए।


“वर्ष 1968 में कांग्रेस ने बहरुल इस्लाम को दूसरी बार सांसद बनाकर राज्यसभा भेजा था, जिन्होंने 1972 में राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और उन्हें गुवाहाटी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बना दिया गया। वहां से सेवानिवृत होने के बाद उन्हें अभूतपूर्व तरीके से 1980 में पुन: सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया। 1983 में शीर्ष अदालत से त्यागपत्र देने के बाद इस्लाम को कांग्रेस ने फिर से तीसरी बार राज्यसभा भेज दिया।”


राहुल गांधी सहित वाम-जिहादी-सेकुलर जमात द्वारा संविधान को केवल सनातन संस्कृति या मनुस्मृति से ही खतरा बताना, किसी कपटी मुनीम द्वारारेड हेरिंग’ (Red Herring) करने जैसा है।रेड हेरिंगअंग्रेजी लेखा-जोखे में इस्तेमाल होने वाला जुमला है, जो एक खास धोखे का प्रतीक है। इसमें जानबूझकर बहीखाते में छोटी गड़बड़ी को दर्शाया जाता है, ताकि जांचकर्ताओं का ध्यान किसी बड़े घपले से भटकाया जा सके।


ऐसा हीमनुस्मृतिके साथ भी किया जाता है, जिससे जनता का ध्यान उन जहरीली विचारधाराओं और ताकतों से भटक जाए, जिनसे भारत के अस्तित्व, पहचान, संविधान और उसमें प्रदत्त जीवनमूल्यों को सर्वाधिक खतरा है।


दुर्भाग्य से उसीबहुलतावाद, सह-अस्तित्व और सेकुलर विरोधीमानसिकता को कांग्रेस सहित अन्य छद्म-सेकुलरवादियों और वामपंथियों के साथ फिर उन व्यक्तियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन प्राप्त है, जो अमेरिकी जॉर्ज सोरोस जैसेधनपशुओंके टुकड़ों पर पलकर उनके औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने और देश को तबाह करने का प्रयास कर रहे है।


लेख


बलबीर पुंज

पूर्व राज्यसभा सदस्य

हाल ही में लेखक कीट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडियापुस्तक प्रकाशित हुई है।