27 सितंबर 1951 को कांग्रेस नेतृत्व और विशेषकर पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा कैबिनेट से त्यागपत्र देने के लिए डॉ. भीमराव अंबेडकर को विवश किया गया। संसद में अंबेडकर ने त्यागपत्र के साथ जो भाषण दिया (अम्बेडकर राइटिंग, वॉल्यूम- 14 भाग 2 पृष्ठ 1317- 1327) वह कांग्रेस के अनुसूचित जाति - जनजाति विरोधी असली चेहरे को उजागर करता है।
अपने त्यागपत्र भाषण में डॉ. अम्बेडकर ने उस पीड़ा को बयां किया है जो उन्होंने नेहरू के हाथों झेली -
वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य बनने पर मुझे मालूम था कि कानून मंत्रालय का प्रशासनिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। यह भारत सरकार की नीतियों को आकार देने का अवसर नहीं दे पाएगा। जब प्रधानमंत्री ने मुझे प्रस्ताव दिया तो मैंने उन्हें स्पष्ट बता दिया था कि अपनी शिक्षा और अनुभव के आधार पर एक वकील होने के साथ मैं किसी भी प्रशासनिक विभाग को चलाने में सक्षम हूं। पुराने वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में मेरे पास श्रम और लोकनिर्माण विभाग के प्रशासनिक दायित्व रहे, जिनमें मैंने कई परियोजनाओं को प्रभावी तरीके से कार्यान्वित किया। प्रधानमंत्री सहमत हो गए और उन्होंने कहा कि वह मुझे अलग से योजना का भी दायित्व देंगे। दुर्भाग्य से योजना विभाग बहुत देरी से मिला, जिस दिन मिला मैं तब तक बाहर आ चुका था। मेरे कार्यकाल के दौरान कई बार एक मंत्री से दूसरे मंत्री को मंत्रालय दिए गए, मुझे लगता है कि उन मंत्रालयों में से भी कोई मुझे दिया जा सकता था लेकिन मुझे हमेशा इस दौड़ से बाहर रखा गया। कई मंत्रियों को दो-तीन मंत्रालय दिए गए जो उनके लिए अतिरिक्त बोझ भी बन गए थे। दूसरी ओर मैं था जो और अधिक काम चाहता था।
जब कुछ दिन के लिए किसी मंत्रालय का प्रभारी मंत्री विदेश जाता था तो अस्थाई तौर पर वह कार्यभार तक देने के लिए मेरे बारे में नहीं सोचा जाता था। मुझे यह समझने में भी कठिनाई होती थी कि मंत्रियों के बीच काम का बंटवारा करने के लिए प्रधानमंत्री जिस नीति का पालन करते हैं उसका पैमाना क्या है ? क्षमता है ? क्या यह विश्वास है ? क्या यह मित्रता है ? या क्या यह लचरता है ? मुझे कभी भी कैबिनेट की प्रमुख समितियां जैसे विदेश मामलों की समिति अथवा रक्षा समिति का सदस्य नहीं चुना गया। जब आर्थिक मामलों की समिति का गठन हुआ तो प्राथमिक रूप से अर्थशास्त्र का छात्र होने के नाते मुझे आशा थी कि इस समिति का सदस्य मुझे नियुक्त किया जाएगा, लेकिन मुझे बाहर रखा गया। जब प्रधानमंत्री इंग्लैंड गए तो मुझे कैबिनेट ने इसका सदस्य चुना लेकिन जब वह वापस आए तो कैबिनेट समिति के पुनर्गठन में भी उन्होंने मुझे बाहर ही रखा। मेरे विरोध दर्ज करने के बाद मेरा नाम जोड़ा गया।
नेहरु सरकार द्वारा अनुसूचित जाति - जनजाति जनसंख्या की उपेक्षा
डॉ. अंबेडकर ने इस मुद्दे पर विस्तार से बोला है कि किस प्रकार नेहरू सरकार ने अनुसूचित जाति - जनजाति जनसँख्या के हितों को ताक पर रख दिया था।
अब मैं उस दूसरे मामले का संदर्भ देना चाहूँगा, जिसने मुझे सरकार के प्रति असंतुष्ट बनाया, वह था पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों से जुड़ा भेदभावपूर्ण व्यवहार। मुझे इस बात का बहुत दुःख है संविधान में इन जातियों की सुरक्षा के लिए कुछ विशेष तय नहीं किया गया। यह तो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक आयोग की संस्तुति के आधार पर सरकार को करना पड़ा। इसका संविधान पारित करते हुए हमें एक वर्ष हो गया था लेकिन सरकार ने आयोग के गठन तक के विषय में नहीं सोचा।
बाबा साहब आगे लिखते हैं कि "मुझे विश्वास था कि प्रधानमंत्री भी इस बात से सहमत होंगे कि मैं इस विषय में कोई शिकायत नहीं करूंगा। मैं कभी भी सत्ता की राजनीति का खेल या मंत्रालय छीनने का खेल कैबिनेट के अंदर नहीं खेलूंगा। मैं सेवा में विश्वास करता हूं, उस पद की सेवा जो कैबिनेट के प्रमुख के नाते प्रधानमंत्री ने मुझे दी है और जिसे करने में मैं पूरी तरह सक्षम हूं। बेशक यह मेरे लिए तब तक अमानवीय नहीं था, जब तक मुझे यह महसूस न हो कि मेरे साथ गलत हो रहा था।"
"1946 में मैं मंत्रालय से बाहर था। यह मेरे लिए और अनुसूचित जाति समुदाय से जुड़े प्रमुख नेताओं के लिए बहुत चिंतन का वर्ष था। अंग्रेज अनुसूचित जाति के संवैधानिक संरक्षण के वादे के बाद मुक्त थे। लेकिन अनुसूचित जाति समुदाय इस बात से बेखबर था कि संविधान सभा उस दिशा में क्या करेगी? इस दुविधा के कालखंड में मैंने अनुसूचित जाति की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की और इसे संयुक्त राष्ट्र संघ में देने का मन बना दिया लेकिन मैंने यह रिपोर्ट जमा नहीं की। मैंने यह महसूस किया कि बेहतर तो यही है कि इस मामले पर विचार के लिए संविधान सभा और देश की संसद को काम करने का एक अवसर मिलना चाहिए। संविधान में अनुसूचित जाति के लोगों की सुरक्षा के लिए बनाए गए प्रावधानों से मैं संतुष्ट नहीं था, फिर भी मैंने स्वीकार किया जो भी उन्होंने किया है ठीक होगा। इस विश्वास के साथ कि सरकार इन प्रावधानों को प्रभावी बनाने के लिए कुछ प्रभावी इच्छाशक्ति अवश्य दिखाएगी।"
नेहरु सरकार की प्रणाली देखते हुए वो आगे कहते हैं कि "आज अनुसूचित जाति की स्थिति क्या है ? जहां तक मैंने देखा है वैसी ही है जैसी पहले थी, वही चला आ रहा उत्पीड़न, वही पुराने अत्याचार, वही पुराना भेदभाव जो पहले दिखाई पड़ता था। सब कुछ वही, बल्कि और बदतर हालात वाली स्थिति। मेरे पास दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों से सैकड़ों मामले आते थे जिनमें समाज की पीड़ा होती थी। जहां उत्पीड़न के खिलाफ पुलिस भी मामले दर्ज नहीं करती थी। तब लगता था कि अनुसूचित जाति के लोगों की पीड़ा सुनने के लिए क्या दुनिया में कोई समानांतर तंत्र बनाना पड़ेगा, जो मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ता था। अभी तक भी अनुसूचित जातियों को कोई राहत क्यों नहीं दी गई है ? बल्कि यदि तुलना करें तो इनसे ज्यादा सरकार मुसलमानों के प्रति संवेदना दिखा रही है।"
"प्रधानमंत्री का सारा समय और ध्यान मुसलमानों के संरक्षण के लिए समर्पित है। मुझे कोई दिक्कत नहीं है, प्रधानमंत्री से भी नहीं। मैं तो केवल यह चाहता हूं कि भारत के मुसलमानों को जब सुरक्षा की जरूरत पड़े तो उन्हें सुरक्षा दी जाए। मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या मुसलमान अकेले हैं जिन्हें ही केवल सुरक्षा की जरूरत है। क्या अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और भारतीय ईसाइयों को सुरक्षा की जरूरत नहीं है। नेहरू जी ने इन समुदायों के लिए क्या चिंता दिखाई है ? जहां तक मुझे मालूम पड़ता है कुछ भी नहीं। जबकि असली बात यह है कि ये वो समुदाय हैं जिन पर मुसलमानों से भी ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों की उपेक्षा को मैं कई वर्षों से देख रहा था।"
नेहरू के अलोकतांत्रिक तरीके
बाबा साहब लिखते हैं कि "कैबिनेट, पहले से आए समितियों के निर्णयों की रिकॉर्डिंग और पंजीकरण मात्र का कार्यालय बन चुकी थी। जैसा कि मैंने पहले कहा कि कैबिनेट अब समितियों के द्वारा ही काम करती है। यहां एक रक्षा समिति है एक विदेश समिति है। रक्षा से जुड़े हुए सभी महत्वपूर्ण मामले रक्षा समिति द्वारा निपटाए जाते हैं। कैबिनेट के वही सदस्य उनके द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। मैं इन समितियों में से किसी का भी सदस्य नहीं था। वे पर्दे के पीछे से काम करते हैं। अन्य लोग जो सदस्य नहीं होते हैं, उन्हें नीति को आकार देने का अवसर दिए बिना संयुक्त जिम्मेदारी लेनी होती है, यह एक असंभव स्थिति है।"
इस्लाम पर डॉ. भीमराव अंबेडकर
इस्लाम पर डॉक्टर अम्बेडकर मुखर थे। उन्होंने लिखा कि "इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में मुस्लिम आक्रांता हिंदुओं के खिलाफ घृणा का राग गाते हुए आए थे। उन्होंने न केवल घृणा ही फैलाई बल्कि वापस जाते हुए हिंदू मंदिर भी जलाए। उनकी नजर में यह एक नेक काम था और उनके लिए तो इसका परिणाम भी नकारात्मक नहीं था। उन्होंने एक कार्य किया जिसे उन्होंने इस्लाम के बीज बोने का नाम दिया। इस पौधे का विकास बखूबी हुआ, यह केवल रोपा गया पौधा नहीं था बल्कि यह एक बड़ा ओक का पेड़ बन गया।" (डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वॉल्यूम 8 पृष्ठ 64- 65)
अजमेर में चढ़ाई के दौरान मोहम्मद गौरी ने मंदिरों के स्तंभ और नींव तोड़कर वहां मस्जिदें बना दीं, वहां इस्लाम के कायदे कानून वाले कॉलेज और प्रतीक खड़े कर दिए। कहा जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1000 से अधिक मंदिर तोड़े और उसके बाद उनकी नींव पर ही मस्जिदें खड़ी कर दीं। वहीं लेखक बताते हैं कि उसने दिल्ली में जामा मस्जिद बनाई और इसमें वह पत्थर और सोना लगाया जो मंदिर तुड़वाकर प्राप्त किया था। फिर उन पर कुरान की आयतें लिपिबद्ध करवा दीं। इस भयावह कारनामे की चर्चा और प्रमाणों जो अभिलेखों लिपि का मिलान बताता है कि दिल्ली की मस्जिद के निर्माण में 27 मंदिरों की सामग्री होने का प्रमाण हैं। (पृष्ठ 59 – 60)
शाहजहां की सल्तनत में भी हमें हिंदू मंदिरों के विनाश का वर्णन मिलता है। ‘बादशाहनामा’ में हिंदुओं के द्वारा मंदिरों के पुनर्निर्माण करने का उल्लेख है। “जहांपनाह ने आदेश दिया है कि बनारस और इसके आसपास के क्षेत्रों में प्रत्येक जगह जिन मंदिरों के निर्माण का कार्य चल रहा है उसका ब्यौरा रखा जाए। इलाहाबाद रियासत से रिपोर्ट दी गई कि बनारस जिले में 76 मंदिर नष्ट करवाए गए थे। (पृष्ठ संख्या 59- 60)