कुछ दिन पहले सहज जिज्ञासा से एक प्रश्न उठाया गया कि पुराने समय में जब किसी राजा-महाराजा की बेटी की शादी करनी होती थी, तब स्वयंवर का आयोजन किया जाता था। फिर उन स्वयंवरों में कोई चुनौती रख दी जाती थी कि फला धनुष उठा लो, अमुक मछली की आँख बींध दो तो कन्या तुम्हारी।
प्रश्न थे कि यह स्वयंवर कैसे ? इसमें कन्या की इच्छा का तो कोई रोल ही नहीं! यह तो शुद्ध शक्ति परीक्षण है, प्रेम या लगाव का तो कोई स्थान ही नहीं इसमें। पिता ने कसौटी तय की, पुरुषों ने कसौटी पर हाथ आजमाया, जो विजेता हुआ, वह कन्या ले गया। और यह तो फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व जैसा हो गया।
अब यदि राम से पहले किसी और ने धनुष उठा लिया होता तो सीताजी का विवाह तो उस व्यक्ति से हो जाता। या अर्जुन से पहले कोई मछली की आँख भेद लेता तो ? पूरी रामायण और पूरी महाभारत की कहानी ही बदल जाती। ऐसे प्रश्न उचित हैं। किये जाने चाहिए।
देखिए, विवाह की कई रीतियाँ होती हैं। वर्तमान में दो रीतियाँ हैं। माता-पिता द्वारा तय किया गया विवाह और कन्या द्वारा स्वयं चयन जिसे हम प्रेम विवाह कहते हैं। आज दोनों मान्य हैं। इन दोनों के पक्ष-विपक्ष में तमाम तर्क दिए जा सकते हैं। इसी तरह उस समय, पुरातन समय में भी कई तरह के विवाह थे। उन्हीं में से एक का प्रकार था स्वयंवर द्वारा विवाह।
स्वयंवर के भी दो तरीके थे। कन्या विवाह की आयु की हुई तो उसके पिता ने स्वयंवर का आयोजन किया। जाहिर सी बात है कि विवाह हेतु वे पुरुष ही आएंगे जो कन्या के कुल और शक्ति-सामर्थ्य के अनुकूल होंगे। राजा की बेटी के विवाह में राजकुल के लोग ही आएंगे। या जो शक्ति-सामर्थ्य में उनके बराबर हों।
अब लोग आ गए। उनमें से कन्या को जो वर पसन्द आया, उसके गले में जयमाला डाली, और फिर विवाह संपन्न। जैसा कि पांडु और कुंती के विवाह में हुआ।
दूसरा तरीका कि पिता सामर्थ्यवान है और वह सामर्थ्यवान लोगों में से भी अपनी विशिष्ट कन्या के गुण-धर्म के समतुल्य वर चाहता है, तो वह एक कसौटी तय कर देगा कि भाई कम से कम इतना सामर्थ्य हो, तभी कन्या के योग्य सिद्ध होंगे। जैसे सीताजी के मामले में कम से कम शिवधनुष को उठा सकने वाला ही योग्य होगा। अग्नि समान प्रखर द्रौपदी के लिए इतना श्रेष्ठ धनुर्धर हो जो घूमते पहिये के पीछे मछली की आँख को नीचे पानी में पड़ी छवि देख भेद सके।
इस विचार के पीछे कि इन परीक्षाओं को तय करने से पहले परिवार से, अपनी पत्नी से और कन्या से परामर्श न लिया गया होगा, नितांत कल्पना ही है। यह कैसे मान लिया कि नहीं ही पूछा होगा? वह भी सीता जी जैसी, द्रौपदी जैसी बेटियों से, जो परिवार छोड़िए पूरे राज्य का गर्व हों।
सीता जी को लेकर हमारे विचार रामानन्द सागर जी के धारावाहिक या तुलसीदास जी की मानस से बने हैं। उनमें स्वयंवर एक दिन का आयोजन है। इनमें कोई सफल न हुआ, अंततः राम हुए और विवाह हो गया। कोई शेष बचा ही नहीं, राम अंतिम थे, सफल हुए, अयोध्या जैसे राज्य के राजकुमार थे, भावी राजा थे, युवा थे, अतीव सुंदर और मोहक थे। पसन्द न आने का कोई कारण था ही नहीं, अतः विवाह हो गया।
पर यह तार्किक बात है कि यदि राम से पहले कोई और सफल हो गया होता, तो क्या होता? यह तो नहीं होता कि चलो, खत्म करो। मिल गया वर। फिर बाकी जो अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे, उनका क्या होता? होता यह कि अवसर तो सभी उपस्थित लोगों को मिलता। धनुष उठाना अंतिम शर्त नहीं हो सकती! यह मिनिमम क्वालिफिकेशन थी कि सीताजी जिन्होंने स्वयं धनुष उठा लिया था, उनका विवाह कम से कम धनुष उठा सकने योग्य व्यक्ति से ही होगा।
जैसे आज किसी 100 मिलियन वर्थ वाली लड़की की शादी कम से कम 100 मिलियन वर्थ वाले लड़के से ही होगी। राधिका मर्चेंट की शादी राधिका मर्चेंट से ज्यादा पैसे वाले लड़के से, अंनत अम्बानी से होगी। आईपीएस लड़की कम से कम आईपीएस लड़के से ही विवाह करेगी। यह मिनिमम क्वालिफिकेशन है। यह नहीं होगा कि जिस भी पहले लड़के के पास 100 मिलियन मिलेगा, राधिका मर्चेंट उससे विवाह कर लेंगी। जो भी पहला आईपीएस मिलेगा, उससे आईपीएस लड़की शादी कर लेगी।
स्वयंवर में कन्या तय करेगी कि वह किससे विवाह करे। जो-जो न्यूनतम अर्हता प्राप्त करेगा, उसमें से चयन करेगी। जिसे चाहेगी, उसे ठुकरा देगी। द्रौपदी ने भी यही तो किया था। कर्ण भी मछली की आँख भेद सकता था। पर कन्या को उसे अपना पति नहीं बनाना था, उसे कोई मौका देना ही नहीं था। उसने परीक्षा से पहले ही उसे रोक दिया।
रही शक्ति-परीक्षण की बात, तो राजा की पुत्री का विवाह शक्ति, शौर्य गुणों से सम्पन्न पुरुष से ही किया जाना तो सामान्य सी बात है। यदि किसी व्यापारी की पुत्री का विवाह हो तो उसका विवाह धन-विषयक गुणों से सम्पन्न पुरुष से होगा, कन्या भी यही चाहेगी। किसी ऋषि-मुनि की पुत्री का विवाह होगा तो उसका विवाह किसी ज्ञानी पुरुष से होगा, कन्या भी यही चाहेगी।
ऐसा नहीं है कि हमारे इतिहास में सब कुछ अच्छा-अच्छा ही हुआ है। पर ऐसा भी नहीं कि सब बुरा ही था। न सभी परिपाटियां अच्छी थी, न सभी बुरी थी।
अस्तु, ऐसे प्रश्न उठने चाहिए, और ऐसे प्रश्नों के समुचित उत्तर दिए भी जाने चाहिए। क्यों उठने चाहिए, और उनके उत्तर क्यों दिए जाने चाहिए, इस विषय पर फिर कभी विचार करेंगे।
लेख
अजीत प्रताप सिंह
स्वतंत्र टिप्पणीकार
लेखक - अभ्युत्थानम् (पुस्तक)