लेखक और वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'वेस्टर्न मीडिया: नैरेटिव्स ऑन इंडिया फ्रॉम गांधी टू मोदी' में 1982 की गर्मियों के बारे में लिखा है, जब वह कनाडा में थे। उसी वर्ष जुलाई में ज्ञानी जैल सिंह भारत के सातवें राष्ट्रपति चुने गये। लेकिन कनाडा में बड़ी संख्या में पंजाबी आबादी होने बावजूद अखबारों में भारत के नए राष्ट्रपति के बारे में कोई खबर नहीं थी। उस समय की स्थिति थी कि एयर कनाडा से यात्रा करते समय, पंजाबी में घोषणाएँ होती थीं, फिर भी भारत के पहले सिख राष्ट्रपति की नियुक्ति की खबर के लिए कनाडाई समाचार पत्रों में कोई जगह नहीं थी। संयोग से, एक दिन उन्हें कनाडाई अखबार में भारत के बारे में एक खबर मिली जोकि कुछ हिंदू तीर्थयात्रियों की मौत के संबंध में थी।
अब यह ध्यान देने योग्य है कि भारत में एक बस दुर्घटना को कनाडाई अखबार के अंतरराष्ट्रीय खंड में जगह मिलती है, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को एक सिख राष्ट्रपति मिलने कि खबर को जगह नहीं मिलती। ऐसा क्यों?
यह सवाल लंबे समय तक उमेश उपाध्याय को परेशान करता रहा, जब तक उन्हें एहसास नहीं हुआ कि भारत जैसे विकासशील देशों के बारे में पश्चिमी मीडिया का कवरेज पूरी तरह से नैरेटिव के व्यापार पर केंद्रित है। चाहे वो नैरेटिव सोच समझकर डिज़ाइन किया गया हो, या किसी आकस्मिक घटना के कारण चर्चा में आया हो। नैरेटिव का यह व्यापार विकसशीलों देशों की छवि को एक संकटग्रस्त राष्ट्रों के रूप में बनाने कि दुकान भर है।
1950 के दशक में बीबीसी के पत्रकार गेराल्ड प्रीस्टलैंड के एक लेख, 'विद नेहरू अराउंड इंडिया' से पश्चिमी मीडिया की मानसिकता समझी जा सकती है। गेराल्ड इस लेख में लिखते हैं कि एक समय था जब वो अपने आर्टिकल्स में भारत को बर्बाद देश बताया करते थे। गेराल्ड यह तर्क दिया करते थे कि यदि भारत भूख से नहीं मरा या प्लेग से नष्ट नहीं हुआ, तो यह निश्चित रूप से झुनि विद्रोह भारत को बर्बाद कर देंगे।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, भारत न केवल अकाल, प्लेग या कोविड से बचा बल्कि दुनिया भर में करीब 101 देशों को वैक्सीन भी दी। इसके अलावा भारत आर्थिक और जियो-पोलिटिकल रूप से भी एक ताकतवर शक्ति बना। नया भारत आज अपने बारे में, अपनी सांस्कृतिक-सभ्यतागत पहचान के बारे में पहले कहीं अधिक सजग है और निश्चित रूप से वैश्विक परिदृश्य में पहले से मजबूत स्थान पर है।
इस भाग का दूसरा पहलू है पश्चिमी देशों की मीडिया, थिंक टैंक और शिक्षा जगत में कतरी, सऊदी, चीनी धन की हिस्सेदारी का बढ़ना। यह अमेरिका के लिए भी उतना ही चिंताजनक है, जितना विश्व के अन्य देशों के लिए। विशेष रूप से पिछले दो दशकों में अमेरिकी संस्थानों में लाखों डॉलर डाले गए हैं, जिससे ऐसे लोगों का एक वर्ग तैयार हुआ है जो रक्त और रंग में अमेरिकी हैं, लेकिन स्वाद में कतरी, विचारों में चीनी और बुद्धि में सऊदी हैं।
2022 के एक अध्ययन के अनुसार, 2001 और 2021 के बीच, अमेरिकी उच्च शिक्षा संस्थानों को विदेशी स्रोतों से लगभग 13 बिलियन डॉलर की फंडिंग मिली, जिसमें से अकेले कतर ने हार्वर्ड सहित दर्जनों अमेरिकी शैक्षणिक संस्थानों को 4.7 बिलियन डॉलर का योगदान दिया। इसी तरह, अमेरिकी शिक्षा विभाग के रिकॉर्ड से पता चलता है कि सऊदी अरब ने 2012 और 2018 के बीच अमेरिकी विश्वविद्यालयों में 650 मिलियन डॉलर का योगदान दिया। सऊदी का पैसा सभी प्रकार के अमेरिकी विश्वविद्यालयों में गया| हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और येल से लेकर मिशिगनऔर बर्कले जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों तक।
जहां तक चीनी धन की बात है, तो 2012 से 2024 के बीच लगभग 200 अमेरिकी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने चीनी व्यवसायों के साथ 2.32 बिलियन डॉलर के अनुबंध किए, इस बारे में 'द वॉल स्ट्रीट जर्नल' में एक विस्तृत रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी।
सिर्फ शिक्षण संसथान ही नहीं, अमेरिकी मीडिया में भी चीनी धन की बाढ़ आ गई है। जुलाई 2021 में सामने आई अमेरिकी न्याय विभाग के आंकड़ों पर आधारित एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन के प्रचार आउटलेट चाइना डेली ने कथित तौर पर उस वर्ष छह महीने की अवधि में अमरीका के सबसे प्रभावशाली समाचार पत्रों और प्रकाशनों को लाखों डॉलर की फंडिंग का भुगतान किया था। इसके लाभार्थियों में टाइम पत्रिका ($700,000), फाइनेंशियल टाइम्स ($371,577), फॉरेन पॉलिसी ($291,000), लॉस एंजिल्स टाइम्स ($272,000) जैसे बड़े अखबार शामिल हैं।
चाइना डेली ने कथित तौर पर नवंबर 2016 से द वाशिंगटन पोस्ट को 4.6 मिलियन डॉलर और द वॉल स्ट्रीट जर्नल को 6 मिलियन डॉलर का भुगतान किया था। इसने अमेरिकी अखबारों में विज्ञापन पर कुल 11,002,628 डॉलर खर्च किए, और ट्विटर पर विज्ञापन में करीब 265,822 डॉलर खर्च किए थे।
अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ ग्लोबल एंटीसेमिटिज्म एंड पॉलिसी (आईएसजीएपी) द्वारा 2022 में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि जैसे-जैसे मध्य पूर्वी देशों से फंडिंग बढ़ती है, वैसे वैसे ही शिक्षण संस्थाओं में "शिक्षाविदों को चुप कराने के लिए अभियान और लोकतांत्रिक मूल्यों में कमी देखी जाती है”।
इस प्रकार अमेरिकी मीडिया, थिंक टैंक और विश्वविद्यालय कतरी-सऊदी-चीनी पैसे से निर्देशित होते हैं। इस सबका परिणाम तह हुआ कि अमेरिकियों में एक ऐसे वर्ग का निर्माण हुआ है जो आज अमेरिका के अपने विचार के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है। यह असर अमेरिकी परिसरों में चल रहे विरोध प्रदर्शनों में देखा जा सकता है, जहां वामपंथी-इस्लामवादी गठजोड़ के जादू में छात्र गहरी नींद में सो रहे हैं।
यह अमेरिका और दुनिया के अन्य लोकतंत्रों, विशेषकर भारत के लिए एक स्पष्ट खतरा है। क्योंकि, क्लासिक ऑरवेलियन स्थापित व्यवस्थाओं के अर्थ में वास्तविकता को उलट देता है, जहां लोकतंत्र को तानाशाही के रूप में पेश किया जाता है, अधिनायकवाद और कट्टरवाद को हमेशा के लिए सही करार कर दिया जाता है और आतंकवाद और मानवाधिकार विक्टिम कार्ड खेलने के सटीक शब्दावली बन जाते हैं।
पश्चिम का यह पुराना मीडिया नए भारत के उदय को लेकर भी उतना ही चिंतित है, जितना ये भारत के बाजरे में द्वेष से भरा है। भारत, एक ऐसा देश जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों को फिर से खोजने के लिए तेजी से औपनिवेशिक मानसिकता को दूर कर रहा है, और इसका विरोध करने में विदेशी मीडिया/शिक्षा जगत को कतरी-सऊदी-चीनी पैसे से भरपूर नए अमेरिकी/पश्चिमी मीडिया का भरपूर समर्थन प्राप्त है। नये और सभ्य भारत के प्रति इस्लामवादी-वामपंथी बेचैनी स्पष्ट है।
इस बात में कोई आश्चर्य नहीं कि जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री अमरीका का दौरा करता है, तो उस देश की मेनस्ट्रीम लिबरल मीडिया इसे "लोकतंत्र के लिए झटका" कहती है! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि नरेंद्र मोदी के उत्थान पर एक जाने-माने सेंटर-ऑफ-राइट भारतीय पत्रकार के लेख को एक ऐसे अखबार द्वारा प्रकाशित करने से मना कर दिया जाता है, जो दिन रात "प्रिंट करने योग्य सभी समाचार" छापने का वादा करता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि एक विधिवत निर्वाचित भारतीय प्रधानमंत्री को कभी भी "हिंदू तानाशाह" के लेबल के बिना संबोधित नहीं किया जाता है, लेकिन चीन के ताकतवर या पश्चिम एशियाई एजेंटों के नाम के साथ ऐसी कोई बात नहीं जोड़ी जाती है।
हम वास्तव में एक ऑरवेलियन दुनिया में रह रहे हैं। - फ़र्स्टपोस्ट, 10 मई 2024