धर्मोन्मूलन (कन्वर्ज़न) पर न्यायालय की चिन्ता और सरकार की उदासीनता

न्यायालय के अनुसार, लोभ, लालच, या भय दिखा कर भोले-भाले (धार्मिक) लोगों का ईसाईकरण या इस्लामीकरण करना उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है। सर्वोच्च न्यायालय का तो यह भी मानना है कि ऐसे अभियानों से भारत की एकता, अखंडता, और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है। अतः इसे रोका जाना अनिवार्य है।

The Narrative World    12-Jul-2024
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खबर है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति, जनजाति, और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को ईसाई या मुस्लिम बनाने के व्यापक धार्मिक अभियानों पर चिंता जताई है। न्यायालय ने कहा है कि यदि इन अभियानों को रोका नहीं गया, तो देश की बहुसंख्यक आबादी शीघ्र ही अल्पसंख्यक हो जाएगी, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। अतः सरकार को कठोर कानून बना कर इस अभियान पर तत्काल रोक लगानी चाहिए। पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसी ही चिंता जताई थी।
 
हालांकि, दोनों ही न्यायालयों ने इसे 'ईसाईकरण' या 'इस्लामीकरण' की संज्ञा दी है, मेरा मानना है कि यह कन्वर्शन नहीं, बल्कि कन्वर्शन है। बहुसंख्यक समाज धर्मधारी है और ईसाई धर्म और इस्लाम मजहब हैं।
 
दोनों में से कोई भी धर्म नहीं है, इसलिए धर्मधारी लोगों को रिलीजन या मजहब में बदल देना उनके धर्म का उन्मूलन है, 'अंतरण' नहीं। यह कन्वर्शन तब कहलाता जब एक धर्म से दूसरे धर्म में अंतरण होता, जैसे कि ईसाई धर्म और इस्लाम भी कोई धर्म होता।
 
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बहरहाल, धर्मान्तरण को कन्वर्शन ही मानते हुए उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को जो निर्देश दिया है, वह त्वरित क्रियान्वयन के योग्य है। धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में बहुसंख्यक हिंदू समाज के ईसाईकरण या इस्लामीकरण का अभियान चलाने वाली संस्थाओं को परोक्ष रूप से करारा जवाब देते हुए, उच्च न्यायालय ने कहा है कि धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि किसी धार्मिक व्यक्ति को धर्म से विमुख कर उसे रिलीजन या मजहब में बदल दिया जाए।
 
न्यायालय के अनुसार, लोभ, लालच, या भय दिखा कर भोले-भाले (धार्मिक) लोगों का ईसाईकरण या इस्लामीकरण करना उनकी धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है। सर्वोच्च न्यायालय का तो यह भी मानना है कि ऐसे अभियानों से भारत की एकता, अखंडता, और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है। अतः इसे रोका जाना अनिवार्य है।
“स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि “कन्वर्शन एक प्रकार से राष्ट्रांतरण है”। धर्म से विमुख हुआ व्यक्ति जब रिलीजन या मजहब को अपनाता है, तो वह प्रकारांतर से भारत के विरुद्ध हो जाता है क्योंकि धर्म भारत की आत्मा है, जबकि रिलीजन और मजहब अभारतीय अवधारणाएं हैं।”
 
महर्षि अरविंद ने भी कहा है कि “धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है और कन्वर्शन से भारतीय राष्ट्रीयता का क्षरण अवश्यंभावी है”। यह तथ्य भारत के इतिहास और भूगोल में सत्य सिद्ध हो चुका है। भारत-विभाजन अर्थात पाकिस्तान-सृजन और खंडित भारत के भीतर विभिन्न मजहबी जनसंख्या के बढ़ते आकार से उत्पन्न विभाजनकारी पृथकतावादी आंदोलनों के प्रमाण हैं। सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त चिंता को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है।
महात्मा गांधी भी कन्वर्शन का मुखर विरोध करते थे और चर्च-मिशनरियों की गतिविधियों पर सवाल उठाते थे। गांधीजी के अनुसार, स्वतंत्र भारत में कन्वर्शनकारी संस्थाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। ‘क्रिश्चियन मिशन्स: देयर प्लेस इन इंडिया’ नामक पुस्तक के 'टॉक विथ मिशनरीज' अध्याय में महात्मा गांधी ने कहा है कि “भारत में आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना और उनका युरोपीकरण करना है”।
 
उन्होंने आगे कहा कि “भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता और युरोपीकरण का पर्याय हो चुकी है। चर्च-मिशनरियों द्वारा किए गए कन्वर्शन के कार्यों के लिए स्वतंत्र भारत में उन्हें कोई स्थान नहीं दिया जाएगा”।
1935 में चर्च-मिशन की एक प्रतिनिधि से हुई भेंटवार्ता में गांधीजी ने साफ कहा था, “अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं कन्वर्शन का यह सारा धंधा ही बंद करा दूंगा” (संपूर्ण गांधी वांग्मय- खंड 61)। सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त चिंता के परिप्रेक्ष्य में गांधीजी की यह घोषणा आज भी प्रासंगिक है।
 
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बावजूद इसके, आज देश भर में ऐसी मजहबी संस्थाओं का जाल बिछा हुआ है जो शिक्षा, स्वास्थ्य, सेवा के विविध प्रकल्पों और सामाजिक न्याय एवं समानता की आड़ में छलपूर्वक कन्वर्शन का धंधा संचालित कर रही हैं।
 
इन संस्थाओं की कारगुजारियों के कारण कभी ‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर उठ जाता है, तो कभी ‘अल्पसंख्यकों की सुरक्षा’ का ग्राफ नीचे की ओर गिरा हुआ बताया जाता है। ये संस्थाएं भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृत्ति की हैं। कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं, जो भारत के विभिन्न मुद्दों पर शोध करती रहती हैं; तो कुछ ऐसी हैं जो इन कार्यों के लिए विभिन्न संस्थाओं को साधन मुहैया कराती हैं।
 
‘फ्रीडम हाउस’ संयुक्त राज्य अमेरिका की एक ऐसी संस्था है, जो भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें भड़काने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त पोषण और नीति निर्धारण करती है। किन्तु वास्तव में इसका गुप्त एजेंडा कन्वर्शन (ईसाईकरण या इस्लामीकरण) और भारत-विभाजन है।
 
‘दलित फ्रीडम नेटवर्क’ (डी.एफ.एन.) नामक एक अमेरिकी संस्था का नियमित पाक्षिक प्रकाशन ‘दलित वॉइस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक ‘दलितस्तान’ राज्य की वकालत करता है। इन दोनों संस्थाओं को अमेरिकी सरकार का समर्थन प्राप्त है और ये अमेरिका स्थित विभिन्न सरकारी आयोगों के समक्ष भारत से मजहबी कार्यकर्ताओं को ले जाकर भारत सरकार के विरुद्ध गवाहियां दिलाती हैं।
 
ये संस्थाएं भारत के बहुसंख्य समाज के विरुद्ध फर्जी अल्पसंख्यक उत्पीड़न और भारत-विभाजन की वकालत-विषयक शोध-परियोजनाओं के लिए शिक्षार्थियों और शिक्षाविदों को फेलोशिप और छात्रवृत्ति प्रदान करती हैं।
 
पी.आई.एफ.आर.ए.एस. (पॉलिसी इंस्टिच्युट फॉर रिलीजन एंड स्टेट) नामक एक और अमेरिकी संस्था है, जिसका उद्देश्य समाज और राज्य के मानवतावादी लोकतांत्रिक आधार के अनुकूल नीति निर्धारण को प्रोत्साहित करना है, लेकिन इसकी योजनाएं भारत की विविधतापूर्ण एकता को खंडित करने और हिंदुओं के कन्वर्शन (कन्वर्शन) की हैं।
 
इन कन्वर्शनकारी मिशनरी संस्थाओं का एक वैश्विक गठबंधन ‘एफ.आई.ए.के.ओ.एन.ए. (द फेडरेशन ऑफ इंडियन अमेरिकन क्रिश्चियन ऑर्गनाइजेशंस ऑफ नॉर्थ अमेरिका)’ है। ये संगठन ‘इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ नामक अमेरिकी कानून के सहारे भारत को ‘मुस्लिम-ईसाई अल्पसंख्यकों का उत्पीड़क देश’ के रूप में घेरने की साजिश रचते रहते हैं और भारत के भीतर नस्लीय भेद एवं सामाजिक फुट पैदा करने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाते रहते हैं।
 
इस स्थिति में भारत की संप्रभुता और अखंडता की सुरक्षा के लिए कन्वर्शन (कन्वर्शन) पर रोक लगाने के बावत इलाहाबाद उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को निर्देशित किए जाने के बावजूद सरकार की उदासीनता चिंताजनक है। सरकार को चाहिए कि वह न्यायालय की चिंता को ध्यान में रखते हुए कन्वर्शनकारी योजनाओं को बंद करे, ‘समान नागरिक संहिता’ शीघ्र लागू करे और ‘मजहबी आबादी नियंत्रण’ का सख्त कानून बनाए।
 
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मनोज ज्वाला
पत्रकार, लेखक, अन्वेषक, चिंतक