कम्युनिज़्म का जन्म एक आर्थिक और वैचारिक सिद्धांत के रूप में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ। 1867 में कार्ल मार्क्स की पुस्तक दास कैपिटल प्रकाशित हुई, जो तुरंत लोकप्रिय हो गई। सन 1917 में ज़ार के रूसी साम्राज्य को रक्त रंजित क्रांति के माध्यम से समाप्त कर दिया गया और सोवियत संघ की स्थापना हुई, जिससे कम्युनिज़्म के हाथों में पहली बार राजसत्ता आई। राजसत्ता अपने आप में बहुत बड़ा आकर्षण होती है।
एक के बाद एक राष्ट्र इस मोहजाल में फंसकर कम्युनिस्ट बन गए। इन राष्ट्रों ने अमेरिका और यूरोप के पूंजीवादी राष्ट्रों के सामने एक गुट खड़ा कर दिया और दुनिया में शीत युद्ध आरंभ हुआ। पिछली सदी का एक कालखंड ऐसा रहा जहां कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट राष्ट्रों का यह गुट अधिक प्रभावशाली रहा। यह एक तथ्य है कि आज कम्युनिज़्म उतार पर है। 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो चुका है। स्वयं रूस और चीन छद्म पूंजीवादी देश बन गए हैं। भारत में भी कम्युनिज़्म देश के एक कोने, केरल, में सिमट कर रह गया है।
कम्युनिज़्म के विस्तार और उसकी विचारधारा के आकर्षण को समझने का प्रयास करते हैं। सबसे पहले इसे स्वीकारना होगा कि मानव मन विभिन्न भावनाओं का एक जटिल मकड़जाल है। कुछ भावनाएं विधायक और रचनात्मक प्रभाव वाली होती हैं जैसे प्रेम, करुणा, मैत्री, सहनशीलता, सहयोग तत्परता, सह अस्तित्व की क्षमताएं आदि। साथ ही कुछ नकारात्मक भावनाएं भी मन में होती हैं जैसे क्रोध, घृणा, अवसाद, प्रमाद (आलस्य), दंभ आदि।
यह भी एक तथ्य है कि मानव मन की नकारात्मक भावनाओं को उत्तेजित करना बहुत सरल है। नकारात्मक भावनाओं को भड़काना और स्वहित के लिए लोगों का शोषण करना एक आजमाई हुई सफल कम्युनिस्ट रणनीति है। मुकेश अंबानी अपने पुत्र के विवाह-पूर्व कार्यक्रम में 1500 करोड़ रुपए व्यय करते हैं और कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट इसे एक राष्ट्रव्यापी ईर्ष्या की लहर में बदल देते हैं।
यह समारंभ दिनों तक खबरिया चैनलों पर प्राइम टाइम में चर्चा का विषय बना रहता है। एक निम्न मध्य वर्ग का साधारण व्यवसायी ईर्ष्या से जल भून जाता है। परंतु यह आश्चर्य है कि एक मिड कैप कंपनी का मालिक, जिसकी कुछ हजार करोड़ की हैसियत है, वह भी ईर्ष्यालु हो जाता है।
1967 के नक्सलबाड़ी नरसंहार ने भारत में सशस्त्र माओवादी आंदोलन की नींव रखी। चारु मजूमदार इसका मुखिया था। तत्कालीन बंगाल में बटाई खेती (शेयर क्रॉपिंग) प्रचलित थी। जमींदार भूमि स्वामी होता था और रैयत बटाई पर फसल उगाते थे। उपजाई गई फसल का एक बड़ा भाग भूस्वामी ले लेते थे। हाड़तोड़ काम करने वाला कृषक किसी तरह दरिद्रता में जीवन यापन करने को विवश था। परिस्थितियां विस्फोटक थीं जिन पर तुरंत ध्यान देना आवश्यक था।
तत्कालीन केंद्र सरकार (प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी) और राज्य सरकार (मुख्यमंत्री अजय कुमार मुखर्जी बांग्ला कांग्रेस) दोनों ने घोर उदासीनता और अक्षमता से काम लिया। प्रताड़ित, दरिद्र, भूखे नंगे किसानों के मन में क्रोध और ईर्ष्या जगाना एकदम सरल था। कम्युनिस्टों ने यही किया। मार्च 1967 में किसानों के एक समूह ने कुछ जमींदारों और एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी। सरकारी प्रतिक्रिया में और जनहानि हुई। कम्युनिस्ट ईर्ष्या के आधार पर एक जन समूह को उकसाने में सफल रहे। एक ऐसे हत्यारे आंदोलन का जन्म हुआ जिसके दुष्परिणाम राष्ट्र आज भी भुगत रहा है।
ईर्ष्या द्वेष के आधार पर उकसाने का यह खेल आज भी चल रहा है। हजारों युवा नियमित अंतराल पर सड़कों पर आकर सरकारी नौकरी की मांग करते हैं। इन्हें यह समझाया जाता है कि सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो, सबको नौकरी पाने का अधिकार है। कम्युनिस्ट कभी भी रोजगार की बात नहीं करते क्योंकि रोजगार के मूल में परिश्रम और उद्यमिता यह दो तत्व होते हैं जिनसे इनको चिढ़ है। लाखों युवा कुशलताविहीन, प्रेरणाविहीन अनेक अनुपयोगी डिग्रियां हाथ में लिए इनके बहकावे में जाकर निठल्ले बैठे रहते हैं।
कम्युनिस्टों द्वारा समानता का भ्रमजाल भी फैलाया जाता है। विविधता प्रकृति का मूल स्वभाव है और समानता प्रकृति के विरुद्ध है। एक उदाहरण देखते हैं। वर्तमान में इस पृथ्वी पर लगभग सात अरब मानव हैं और प्रत्येक के पास 10 उंगलियां (कुछ एक को छोड़कर) हैं। कुल मिलाकर 70 बिलियन (7000 करोड़) उंगलियां हुईं। आश्चर्य है कि इन 70 अरब उंगलियों के चिन्ह (फिंगरप्रिंट) भी भिन्न हैं, एक दूसरे से नहीं मिलते।
मानव निर्मित वस्तुएं भी एक जैसी नहीं होतीं। एक गृहिणी की बनाई गई दो रोटियां शत प्रतिशत एक सी नहीं होंगी। मशीन निर्मित वस्तुएं समान होती हैं जैसे एक ही मॉडल की दो पेन एक समान होंगी। कार, टेबल, छपी हुई पुस्तक 100% एक समान होंगी। परंतु प्रकृति में उपजा या जन्मा कुछ भी समान नहीं होता। यहां तक कि एक वृक्ष की दो पत्तियां भी भिन्न होंगी। पत्तियों पर सूक्ष्म शिराएं होती हैं जिनका पैटर्न असमान होता है।
कम्युनिस्टों का धर्मग्रंथ दास कैपिटल 1867 में जर्मनी में छपा। विश्व भर में सामंतवादी शासन द्वारा शोषित वर्ग तुरंत इससे प्रभावित हो गया। यह अमेरिका भी पहुंचा। एंड्रयू कार्नेगी 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के समय अमेरिका के एक महत्वपूर्ण उद्योगपति थे। उन्हें अमेरिका का पहला अरबपति (billionaire) कहा जाता है।
कम्युनिज़्म से प्रभावित एक व्यक्ति कार्नेगी से मिलने पहुंचा, उनकी आलोचना करने लगा और मांग करने लगा कि कार्नेगी अपनी संपत्ति सब में बराबर बराबर बांट दें। कार्नेगी ने उसके हाथ पर एक डॉलर रखा और कहा, ”मेरी संपत्ति में से अपने भाग का 1 डॉलर पकड़ो और चलते बनो।” अपने कठोर श्रम, साहस और उद्यमिता के कारण धनी बने एक व्यक्ति ने कम्युनिस्टों को एक पाठ पढ़ा दिया कि उनकी संपत्ति बांट देने से सभी को जो हिस्सा मिलेगा उससे उन्हें 1 जून की रोटी ही मिल पाएगी, इससे अधिक कुछ नहीं। संपत्ति का बंटवारा एक मूर्खतापूर्ण विचार है। रोजगार के अवसर उद्यमिता एवं उद्यम से ही पैदा हो सकते हैं, जो की शुद्ध पूंजीवादी विचार है।
जब कम्युनिस्टों के आदर्श विचार समानता की बात चलती है तो ब्रिटिश व्यंगकार जॉर्ज ऑरवेल को कौन भूल सकता है? उन्होंने अपने छोटे से उपन्यास एनिमल फार्म में व्यंग्य के माध्यम से कम्युनिज़्म को उधेड़ा है। कहानी में कुछ सूअर एक पशुबाड़े पर समानता और समृद्धि लाने का वचन देकर अधिकार कर लेते हैं। वे विशेषाधिकार संपन्न सुविधा भोगी शासक वर्ग बन जाते हैं।
शोषण पीड़ित अन्य पशु, समानता जिसका अस्तित्व ही नहीं था, पर प्रश्न करते हैं तो उत्तर मिलता है, “सब समान हैं परंतु कुछ लोग दूसरों से अधिक समान हैं – All are equal but some are more equal than others।” यह नियम सभी कम्युनिस्टों पर लागू होता है। इनका शासक वर्ग और जहां यह शासन में नहीं है वहां उनके बड़े नेता, दूसरों से अधिक समान हैं।
“केरल के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री पी विजयन अपना इलाज कराने घोर पूंजीवादी अमेरिका जाते हैं और इलाज पर खर्च करोड़ रुपए का होता है। वे केरल के आमजन से अधिक समान जो हैं। भारत के कर्मचारी संगठन (यूनियन) कम्युनिस्टों के कब्जे में हैं। इन संगठनों के नेता जीवन भर नेता बने रहते हैं क्योंकि किसी भी यूनियन में गुप्त मतदान से चुनाव नहीं होते। यह उनके समानता के सिद्धांत का कटु सत्य है।”
ओशो (आचार्य रजनीश) से किसी ने पूछा, “मनुष्यों की ध्यान करने की क्षमता में अंतर होता है क्या?” ओशो ने उत्तर दिया था, ”जीवन एक दौड़ है जिसमें सब की क्षमता और गति अलग-अलग होती है किंतु ध्यान दौड़ नहीं है, ध्यान ठहर जाने और सारे प्रयत्न छोड़ने का उपक्रम है।” ध्यान करने की सब की क्षमता एक समान है। गहराई से विचार करें तो पाएंगे कि सच्ची समानता आध्यात्मिकता के स्तर पर ही संभव है।
कम्युनिज़्म का समानता का सिद्धांत कोरी बकवास है। यह खतरनाक और शरारतपूर्ण है क्योंकि यह ईर्ष्या और द्वेष को उत्तेजित करके आगे बढ़ता है। माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। कम्युनिज़्म समानता के आकर्षण से आरंभ होता है और उसका लक्ष्य सत्ता ही होता है जो बंदूक की नली से निकली है। इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है।
लेख
ललित वाढेर
स्तंभकार - Writers For The Nation
सेवानिवृत्त बैंकर एवं लेखक
रायपुर, छत्तीसगढ़