भोजन का मजहब और राजनीति

29 Jul 2024 14:32:23
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गत शुक्रवार (26 जुलाई) सर्वोच्च न्यायालय ने कांवड़ मार्ग पर नामपट्टिका संबंधित आदेश पर रोक को 5 अगस्त तक बढ़ा दिया। इस मुद्दे के तीन पहलू हैं। पहला— यह उपभोक्ताओं के जानने के अधिकार से जुड़ा है। दूसरा— कानून-व्यवस्था को बनाए रखना राज्य का दायित्व है और उसे भंग न होने देना शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी है। तीसरा— यह कोई नई व्यवस्था नहीं है, बल्कि पहले से स्थापित कानून-नियम के अनुरूप है। परंतु राजनीति से प्रेरित एक वर्ग ने इस विषय को ‘हिंदू-मुसलमान’ का मुद्दा बना दिया। यह दिलचस्प है कि इस निर्णय का मुखर विरोध करने वाला राजनीतिक वर्ग वही है, जो लोकसभा चुनाव में बारंबार प्रचार कर रहा था कि सत्तासीन होने पर घर-घर जाकर लोगों से नाम के साथ उनकी जाति भी पूछेगा।
Representative Imageप्रश्न यह है कि देश के अन्य मतावलंबियों की भांति हिंदुओं को अपनी आस्था के अनुरूप भोजन चुनने का अधिकार है या नहीं? यहूदी समाज में ‘कोशर’ की मान्यता है, जिसमें खाद्य उत्पादों को लेकर मजहबी नियम हैं। उनके समुदाय में केवल खाना ही नहीं, बल्कि भोजन का स्थान भी ‘कोशर’ होना चाहिए। इसी तरह इस्लाम में ‘हलाल’ की अवधारणा है, जिसका अर्थ वैध है। मुसलमानों के लिए शूकर का मांस ‘हराम’ है। यही कारण है कि जब मुस्लिम समाज में ईद या फिर मुहर्रम का पर्व होता है, तो उनकी मजहबी आस्था का सम्मान करते हुए यातायात परिचालन में अस्थायी तौर पर उचित परिवर्तन किए जाते हैं, साथ ही उनके मार्गों में सूअरों की आवाजाही को भी प्रतिबंधित कर दिया जाता है।
 
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हिंदू समाज में कांवड़ यात्रा कई किलोमीटर चलने वाली, एक कठिन शारीरिक तीर्थयात्रा है। कुछ कांवड़िए ‘डाक कांवड़’ भी लाते हैं। इसमें गंगाजल से भरे कांवड़ को बिना जमीन पर रखे भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को अर्पित करने और ‘सात्विक भोजन’ ग्रहण करने की मान्यता है।
 
करोड़ों हिंदू पवित्र दिनों में तामसिक खाद्य वस्तुओं जैसे प्याज-लहसुन आदि के साथ साधारण नमक का सेवन भी नहीं करते हैं। इतना ही नहीं, नवरात्र के पवित्र दिनों में यदि कोई गैर-मजहबी कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है, तब चाहे नवरात्र के व्रत रखने वाले सीमित हों, उनके खाने-पीने के लिए अलग से विशेष व्यवस्था की जाती है।
 
जिस दिशानिर्देश का विरोध किया जा रहा है, उसमें कहीं भी यह नहीं लिखा था कि मुस्लिम या कोई अन्य गैर-हिंदू, कांवड़ यात्रा के मार्गों पर अपनी दुकान-ढाबा-ठेला आदि (मांस विक्रेताओं को छोड़कर) नहीं लगा सकता। इस आदेश के अनुसार, प्रत्येक दुकानदार-ढाबा संचालक, चाहे वह किसी भी मजहब का हो, उसे अपने वास्तविक नाम की पट्टी लगानी थी। इस शासनादेश की एक पृष्ठभूमि भी है।
 
कई गैर-हिंदू अपनी वास्तविक पहचान छिपाकर देवी-देवताओं आदि के नामों पर शुद्ध शाकाहारी खाद्य-पेय दुकानों, ढाबे, रेहड़ी और ठेलों का संचालन करते हैं। आखिर अपनी असली पहचान छिपाने और गलत पहचान बताने के पीछे क्या मंशा हो सकती है? यहां ‘अपराध’ केवल उपभोक्ता को धोखा देने तक सीमित नहीं है।
 
इस छल के पीछे हिंदू तीर्थयात्रियों की आस्था पर कुठाराघात करने की मानसिकता भी होती है, जिसके भंडाफोड़ होने पर एक छोटी-सी घटना दंगे का रूप ले सकती है। कानून-व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने हेतु दुकानों-ढाबों आदि पर नामपट्टिका लगाने का आदेश दिया गया था।
 
उपभोक्ताओं के अधिकार की रक्षा करने हेतु देश में पहले से विनियमन हैं। वर्ष 2005 से जारी ‘जागो ग्राहक जागो’ रूपी केंद्रीय उपभोक्ता जागरूकता कार्यक्रम के साथ वर्ष 2006 में पारित ‘खाद्य सुरक्षा मानक अधिनियम’ और वर्ष 2011 में लागू 'खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण' से उपभोक्ताओं के जानने के अधिकार की रक्षा की जा रही है।
 
इन कानूनों के अनुसार, खाद्य परिसरों में सभी प्रतिष्ठानों को लाइसेंस/पंजीकरण संख्या प्रदर्शित करना अनिवार्य है, जिसमें धारक के नाम का भी उल्लेख होता है। रेलवे स्टेशनों पर पंजीकृत विक्रेता और टैक्सी-ऑटो के मालिक-चालक अपना विवरण प्रदर्शित करते हैं। अधिकतर ऑनलाइन एप में भोजन-दवा-राशन आदि वस्तुओं का वितरण करने वाले का नाम उपभोक्ताओं को दिखता है। कांवड़ संबंधित मामले में सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने उपभोक्ताओं के अधिकारों से जुड़े कानूनों की देशभर में अनुपालना पर बल दिया है।
 
जब नामपट्टिका का मामला प्रकरण में आया, तब मेरे समक्ष नाना प्रकार के विचार आए। उसमें ‘सात्विक भोजन’ की पवित्रता से भी जुड़ा था। मुझसे कहा गया कि मुस्लिम समुदाय में ‘हलाल’ और यहूदी समाज में 'कोशर' की भांति सनातन परंपरा में 'सात्विक' की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है और 'सात्विक भोजन' करने वाले हिंदुओं की संख्या बहुत कम है। ऐसा कहने वाले या तो भारतीय संस्कृति को नहीं समझते या पूर्वाग्रह के शिकार हैं या फिर इससे घृणा करते हैं।
 
सनातन संस्कृति में एकरूपता के बजाय समरसता का दर्शन है। एकेश्वरवादी मजहबों के प्रतिकूल, इसमें ‘सह-अस्तित्व’ की भावना हैं। प्रत्येक सनातनी को अपने देवी-देवता को चुनने, उनकी आराधना करने और उनसे आध्यात्मिक पूर्ति करने की स्वीकृति है। अपने बहुलतावादी चिंतन के अनुरूप सनातन में ‘सात्विक भोजन’ को परिभाषित करने हेतु कोई संकीर्ण और असहिष्णु ईकाई नहीं है।
 
यह एक सनातनी पर निर्भर करता है कि उनके लिए 'सात्विक' क्या है। मेरा मत है कि देश में यदि एक भी हिंदू, मुस्लिम या यहूदी अपनी मजहबी आस्था के अनुरूप भोजन करना चाहता है, तो उसकी पूर्ति करने का दायित्व हमारी संवैधानिक-शासकीय व्यवस्था के साथ सभ्य समाज का भी है।
 
वास्तव में, कांवड़ संबंधित हालिया शासन-व्यवस्था पर प्रश्न उठाना भारतीय परंपरा के खिलाफ है। ऐसा करने वाले उस वैचारिक अधिष्ठान के द्योतक हैं, जिसमें केवल एक ईश्वर, एक पैगंबर, एक सिद्धांत और एक विचार मानने की बाध्यता है, जिसके उल्लंघन/विरोध करने पर आरोपी को ईशनिंदा का दोषी मानकर दंड (मौत सहित) देने की भी स्वीकार्यता होती है।
 
कौन-सा खाद्य उत्पाद मुसलमानों की मजहबी मान्यताओं के अनुरूप है, उसे निर्धारित करने के लिए वर्षों से निजी संस्थाओं द्वारा ‘हलाल’ प्रमाणपत्र जारी हो रहे हैं। परंतु जैसे ही कांवड़ियों के ‘भोजन चुनने के अधिकार’ की रक्षा हेतु उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड सरकार ने होटलों, दुकानदारों और रेहड़ी-ठेले को नामपट्टिका लगाने का निर्देश दिया, उसे एकाएक ‘संविधान-विरोधी’, ‘इस्लामोफोबिया’ और ‘हिटलरशाही’ तक बता दिया गया। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं?
 
लेख
बलबीर पुंज 
लेखक, पत्रकार, और राज्यसभा के पूर्व सदस्य
हाल ही में अपनी नवीनतम पुस्तक 'ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया' के प्रकाशन के साथ चर्चा में हैं।
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