स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती बलिदान दिवस: जनजाति संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले महात्मा

23 Aug 2024 16:40:01

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वेदांत केसरी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को
23 अगस्त, 2008 की रात को ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्र से निर्दयतापूर्वक मार दिया गया था, क्योंकि वह असहाय वनवासियों के ईसाई धर्म में कन्वर्ज़न का विरोध कर रहे थे और वनवासी बहुल उड़ीसा के कंधमाल जिले में स्थानीय वनवासियों के कल्याण के लिए काम कर रहे थे।


ओडिशा के वन प्रधान फूलबनी (कंधमाल) जिले के ग्राम गुरजंग में 1924 में जन्में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की बचपन से ही हमेशा आकांक्षा थी कि वे समाज के लिए अपना जीवन समर्पित करें।


गृहस्थ और दो बच्चों के पिता होने के बावजूद उन्होंने अपने संकल्प को पूरा करने के उद्देश्य से एक दिन अंततः साधनाओं के लिए हिमालय का मार्ग पकड़ लिया। जब 1965 में वह हिमालय से लौटे तब वह गोरक्षा आंदोलन से जुड़ गए।


आरंभ में उन्होंने अपने काम का केंद्र वन बहुल फुलबानी (कंधमाल) जिले के चकपाद गांव को बनाया। कुछ ही वर्षों में उनके सेवा कार्य की ख्याति चारों तरफ के क्षेत्रों में गूंजने लगी।

उन्होंने जनजाति लोगों के सामाजिक और धार्मिक विकास के अलावा उन्हें सशक्त बनाने के लिए चार दशक तक काम किया। उन्होंने कंधमाल के दूरस्थ स्थान चकपाद में संस्कृत पढ़ाने के लिए गुरुकुल पद्धति पर आधारित एक विद्यालय और महाविद्यालय की स्थापना की।


जिले में स्वामीजी का जलेस्पट्टा स्थित शंकराचार्य कन्याश्रम नामक एक और आवासीय विद्यालय और आश्रम है, जहां लड़कियों को शिक्षा दी जाती है।


1969 में उन्होंने चकपाद में अपना पहला आश्रम शुरू किया और यह आश्रम स्थानीय वनवासी आबादी के कल्याण के उद्देश्य से गतिविधियों का केंद्र बन गया। उन्होंने बिरुपाक्ष्य, कुमारेश्वर और जोगेश्वर मंदिरों का जीर्णोद्धार किया।


स्वामीजी वेदांत दर्शन और संस्कृत व्याकरण के मूर्धन्य विद्वान थे और इसलिए उन्हें "वेदांत केसरी" के नाम से जाना जाता था।


वह लंबे समय तक फूलबनी जिले में डटे रहे और वनवासी संस्कृति और धर्म की रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष करते रहे, पूरी की गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य ने उन्हें "विधर्मी कुचक्र विदारण महारथी" की उपाधि से सम्मानित किया था।


उनके कंधमाल में अपना काम शुरू करने के समय से ही आरएसएस के समर्पित प्रचारक श्री रघुनाथ सेठी लंबे समय तक उनके साथ जुड़े रहे। उन्होंने शुरू में चकपाद में अपनी गतिविधियों के स्थान का चयन किया क्योंकि वहाँ प्रसिद्ध बिरूपाख्या मंदिर है। इसके बाद उन्होंने जलेस्पट्टा में कन्याश्रम, तुलसीपुर में सेवा स्कूल, कटक जिले के बांकी और अंगुल जिले के पाणिग्रोला में एक आश्रम की स्थापना की।


चकपाद स्थित बिरुपाख्या मंदिर कंधमाल (फूलबनी) जिले में स्थित है। यह समुद्र तल से लगभग 800 फीट की ऊंचाई पर है। मंदिर के पास बुरुटंगा नदी बहतीहै। यह स्थान मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से घिर हुआ है। रामायण में भी चकपाद का उल्लेख किया गया है। चकपाद का प्राचीन नाम एकचक्रनगरी है। यह नाम रामायण से जुड़ा है। यहां एक शिव मंदिर मौजूद है जहां शिवलिंग दक्षिण की ओर झुका हुआ है और उस स्थान के सभी वृक्ष भी दक्षिण की ओर झुके हुए हैं।


स्वामी जी दूरदर्शी थे जोकि उनकी गतिविधियों से स्पष्ट होता है उन्होंने एक एक क्षेत्र में अपनी गतिविधियों के माध्यम से कंधमाल के लोगों की जीवन शैली को आमूल-चूल रूप से बदल दिया।


उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा के लिए रात्रि विद्यालय शुरू किया था। उन्होंने वर्ष 1969 में चकपाद में कल्याण आश्रम नाम का एक संस्कृत विद्यालय खोला, जिसे अब संस्कृत कॉलेज के रूप में प्रोन्नत कर दिया गया है।


लड़कियों की शिक्षा के लिए उन्होंने वर्ष 1988 में कंधमाल के जलेस्पेट्टा में पूर्ण आवासीय विद्यालय 'शंकराचार्य कन्याश्रम' की स्थापना की, जहां 250 छात्राएं पढ़ रही हैं। उन्होंने अंगुल जिले के बांकी में एक स्कूल और पांडीगोला में एक आश्रम की स्थापना भी की।

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स्वामीजी ने कक्षा में छात्रों को व्याकरण और खेतों में अच्छी खेती की तकनीक सिखाई। उन्होंने ग्रामीणों को धान और सब्जी आदि की खेती कब और कैसे करनी है, यह सब सिखाया। उनके प्रयासों के कारण उदयगिर और रायकिया ब्लॉक क्षेत्र में ओडिशा के किसान सेम की सर्वोत्तम गुणवत्ता और उच्चतम मात्रा का उत्पादन करते हैं। उन्होंने कटिंगिया में सब्जी सहकारी समिति भी बनाई। इन प्रयासों के जरिए स्थानीय आबादी की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ।


अब हम कंधमाल में हर जगह हरियाली देख सकते हैं क्योंकि यहाँ किसी अन्य जिले की तुलना में अधिक वन क्षेत्र है। यह सब स्वामीजी के प्रयासों के कारण है। स्वामीजी वनवासी संस्कृति और परंपरा के संरक्षण और विकास के लिए काफी गंभीर थे। उन्होंने कई स्थानों पर वनवासी देव स्थान (धर्माणीपेनू) की स्थापना और जीर्णोद्धार किया। इसी तरह उन्होंने गजपति और कंधमाल जिले से होते हुए एक रथयात्रा शुरू की थी, जिसके दौरान हजारों वनवासी अपनी विश्वास व्यवस्था में वापस जाकर उसका पालन करने के लिए प्रेरित हुए थे।

वह प्रायः कहा करते थे कि जहां आंसू या खून गिरता है वह क्षेत्र समृद्ध नहीं होगा। वह अंधाधुंध गोहत्या के खिलाफ थे। उन्होंने लोगों को पशुओं को कत्लेआम से बचाने की शिक्षा दी। कई मौकों पर उन्होंने प्रदर्शन, धरना दिया और राज्य के कई हिस्सों में भूख हड़ताल में हिस्सा लिया। उन्होंने इस कारण से राज्य भर में दौरा किया।


वह कई सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक संगठनों से जुड़े रहे। उन्होंने राज्य के विभिन्न हिस्सों में कई मंदिरों की स्थापना और जीर्णोद्धार किया है। कंधमाल में उनका मुख्य काम वनवासियों को ईसाई कन्वर्ज़न से बचाना था। उन्होंने जनजातियों को उनके मूल विश्वास में वापस लाने के लिए अपने स्तर पर भरसक प्रयास किया। उनके काम से प्रेरित होकर राज्य के अलग-अलग हिस्सों में हजारों लोग उनके शिष्य बन जाते थे।


उनका मुख्य लक्ष्य


स्वामी जी का मुख्य लक्ष्य वनवासी युवाओं को मजबूत, निडर, शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत बनाना। उनका मानना था कि जनजातियों को अपनी आस्था के प्रति दृढ़ होना चाहिए और अपने भाइयों के कन्वर्ज़न पर रोक लगाना चाहिए और बाहर गए लोगों को फिर से घरवापसी करना चाहिए। गोरक्षा को लेकर भी वह पूरे राज्य में बहुत ही लोकप्रिय हो गए। 1986 और 2007 में चकपाद में दो बड़े समारोहों के दौरान लाखों लोग उस दूरस्थ स्थान पर एकत्र हुए थे। उन्होंने जिले भर के गांवों की पदयात्राएं की। वह वनवासी समाज के कई युवक-युवतियों से जुड़े और जगह-जगह की यात्राएं की।


ओडिशा के लाखों लोगों की स्वामी लक्ष्मणानंद जी के प्रति विशेष श्रद्धा है। उन्होंने सैकड़ों गांवों में पदयात्राएं कर लाखों वनवासियों के जीवन में स्वाभिमान की भावना जगाई। उन्होंने सैकड़ों गांवों में श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन किया।


1986 में स्वामीजी ने जगन्नाथपुरी में विराजमान भगवान जगन्नाथ स्वामी के देवी-देवताओं को विशाल रथ में बिठाया और करीब तीन महीने तक ओडिशा के वनवासी जिलों से होकर यात्रा की। इस रथ के माध्यम से करीब 10 लाख वनवासी पुरुष और महिलाएं भगवान जगन्नाथ से जुड़ गए और श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चना की। इस रथ के माध्यम से स्वामीजी ने निषेध, सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जनजागरूकता पैदा की और गोरक्षा को बढ़ावा दिया। इससे वनवासियों में चेतना और भक्ति जागृत हुई।


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1970 से दिसंबर 2007 तक स्वामी जी पर 8 बार हमला हुआ। लेकिन इन हमलों के बावजूद वनवासियों का ईसाई धर्म में कन्वर्ज़न रोकने का स्वामीजी का संकल्प अटूट था। स्वामीजी कहते थे- वे जो भी प्रयास करेंगे, वे दिव्य कार्य में बाधा नहीं डाल पाएंगे।


हत्या से पहले


10 से 21 अगस्त, 2008 के बीच स्वामीजी को अपहरण और मौत की धमकी देने वाले 3 पत्र मिले। पुलिस ने कई शिकायतों के बाद 23 अगस्त को निजी सुरक्षा कर्मी उपलब्ध कराया गया


हत्या की घटना का क्रमवार विवरण


23 अगस्त 2008 को उड़ीसा के कन्या आश्रम जलेस्पेट्टा, कंधमाल जिले में शाम 7:30 बजे स्वामीजी अपनी प्रार्थना के बाद आश्रम के अंत:वासियों से बातचीत कर रहे थे। AK-47 राइफलों और अन्य हथियारों से लैस 15 नकाबपोश लोग आश्रम में घुस गए। बाबा अमृतानंद को स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती मानते हुए उन्हें गोली मार दी गई।

आश्रम की एक अन्य शिष्या माता भक्तिमयी पीछे के दरवाजे से बाहर भागी, स्वामीजी के कमरे में आई, कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया, स्वामीजी को बचाने के लिए उन्हे शौचालय में धकेल दिया। हमलावरों ने दरवाजा काटकर माता भक्तिमयी की हत्या कर दी। उनकी सहायता के लिए पहुंचे किशोर बाबा पर भी गोली चला दी।

हमलावरों ने कमरे में प्रवेश किया और स्वामीजी की तलाश की, उन्होंने शौचालय का दरवाजा खोल दिया और उन्हे गोली मार दी। स्वामीजी की तत्काल घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। वह 84 वर्ष के थे जब उन्हें इतनी निर्ममता से मारा गया था। हमलावरों ने बर्बरता से धारदार हथियारों से मृतकों के शवों को काट दिया।


हत्या के पीछे कारण


ईसाई मिशनरियों द्वारा अवैध और धोखाधड़ी से वनवासियों का कन्वर्ज़न को रोकने के लिए ४० साल की अवधि में स्वामीजी जी द्वारा की गयी गतिविधियां। स्वामीजी का गोहत्या विरोधी अभियान भी उनकी आँखों में चुभ रहा था, क्योंकि इसके माध्यम से बड़ी संख्या में लोग उनसे जुड़ रहे थे।

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स्वामीजी ने ईसाई मिशनरियों द्वारा अवैध रूप से भूमि कब्जा करने के षडयंत्र को उजागर किया था। स्वामी जी की वनवासी उत्थान गतिविधियों ने ईसाई मिशनरियों को चुनौती दी जो असहाय जनजातियों के धर्म को बदलने का प्रयास कर रहे थे


स्वामी जी पर हमलों का इतिहास


अंतिम हमले से पहले स्वामीजी पर 8 बार प्राणघाती हमले किए गए थे। 1969 में रूपगांव स्थित एक स्थानीय चर्च के पादरी के नेतृत्व में ईसाइयों की भीड़ द्वारा हमला किया गया था। 1970 में गौ तस्करों द्वारा हमला किया गया था। 1978 में बटिंगिया में आयोजित एक धार्मिक सभा में हमला हुआ। 1981 में खिंगिया में हथियारबंद क्रिश्चियन आतंकी द्वारा हमला किया गया। 1983 में कांबगिरी में ईसाइयों द्वारा। 1999 में फिरंगिया में ईसाइयों द्वारा। 2002 में कलिंग में प्राणघाती जिसमे उनके सिर में गंभीर चोट लग गई थी। 2007 में ब्रामणीगांव जाते समय उन पर हमला कर घायल कर दिया गया था।


सुरक्षा विफलता


स्वामीजी पर 8 हमलों के बावजूद प्रशासन द्वारा पर्याप्त सुरक्षा प्रदान नहीं की गई। हत्या के दिन अकेले सुरक्षा कर्मचारियों को बिना किसी विकल्प के छुट्टी पर जाने की अनुमति दी गई थी।


हत्या के बाद


23 अगस्त को रोड ब्लॉक, कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन हुए। जलेस्पेटा में कर्फ्यू लगाया गया। 24 अगस्त को लोगों ने जुलूस में साधुओं के शव निकाले। उड़ीसा सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश दिए। 25 अगस्त को राज्यव्यापी बंद का आह्वान किया गया था। कई जगहों से कड़ी प्रतिक्रियाएं आईं।


चकपाद में स्वामीजी का अंतिम संस्कार जुलूस निकाला गया

28 अगस्त को पूरे देश में कंधमाल में कथित अत्याचारों के विरोध में ईसाई शिक्षण संस्थान बंद रहे। 25 अगस्त से 1 सितंबर के बीच स्वामी जी की हत्या में मिशनरियों की भूमिका को छुपाने के लिए कई ईसाइयों ने अपने घरों को स्वयं आग लगा दी और चर्चों में स्थानांतरित हो गए।

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इसके बाद ओड़ीशा में बड़ी संख्या में हिंदुओं की अंधाधुंध गिरफ्तारी हुई। ईसाइयों द्वारा बड़े पैमाने पर झूठा और दुर्भावनापूर्ण अभियान चलाया गया। पोप बेनेडिक्ट XVI ने कंधमाल में ईसाइयों की कथित हत्या की निंदा जारी की। 3 सितंबर को बिशप राफेल चेनाथ ने सूप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को किसी यात्रा की अनुमति देने पर रोक लगाई। 5 सितंबर को पुलिस ने 453 निर्दोष हिंदुओं को गिरफ्तार किया। 6 सितंबर को हजारों साधु भुवनेश्वर में इकट्ठे हुए और गिरफ्तार हो गए।


क्षेत्र में संघर्ष के पीछे के मुद्दे :

आरक्षण : पानो जनजाति के सदस्यों को बल, प्रलोभन और धोखाधड़ी के माध्यम से ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया गया था और धर्मांतरित लोगों को आरक्षण का लाभ देने के लिए एक अभियान चल रहा था।

भूमि पर अवैध कब्जे : चर्चों ने क्षेत्र के अन्य गैर-परिवर्तित अनुसूचित जनजातियों से संबंधित भूमि के बड़े भूभाग को अपने नियंत्रण में ले लिया था।

सांस्कृतिक हमले: जनजातियों का कन्वर्ज़न कराने के लिए ईसाई मिशनरी जनजातियों की संस्कृति और विश्वासों को बदलने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन स्वामीजी उनकी गतिविधियों में बाधक सिद्ध हो रहे थे।

उड़ीसा धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम 1967 को लागू करने में प्रशासन की विफलता।

गोहत्या निवारण अधिनियम लागू करने में प्रशासन की विफलता .

इस मुद्दे में यूपीए सरकार की भूमिका। 
यूपीए सरकार द्वारा स्वामीजी की हत्या पर कोई बयान नहीं।

तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह और कांग्रेस पार्टी ने कंधमाल के ईसाइयों के पक्ष में वक्तव्य जारी किया।

केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने ईसाई बस्तियों और राहत शिविरों का दौरा किया लेकिन आश्रम जाने की आवश्यकता नहीं समझी।

केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ने घटनाओं के बाद कथित रूप से प्रभावित ईसाई परिवारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जबकि हिंदुओं को फूटी कौड़ी भी नहीं दी गई।


दोषियों (ईसाई उग्रवादियों) की गिरफ्तारी और उनके द्वारा रखे गए अवैध हथियारों की जांच तथा उन्हें अपने नियंत्रण में लेने के लिए सरकार या प्रशासन द्वारा कोई प्रयास नहीं किए गए। स्वामी जी की हत्या में ईसाई गैर सरकारी संगठनों की भूमिकाओं की जांच नहीं की गई। सरकार का रवैया ईसाइयों की रक्षा और हिंदुओं को प्रताड़ित करने का था। सैकड़ों हिंदुओं को गिरफ्तार किया गया लेकिन बहुत कम ईसाइयों से पूछताछ की गई। चर्चों और अन्य ईसाई संगठनों को राहत के रूप में लाखों रुपये प्रदान किए गए थे, भले ही उस अवधि के दौरान उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा हो।


ईसाई उग्रवादियों ने 23 अगस्त 2008 को रात 8 बजे श्री कृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती, भक्तिमयी माता, अमृतानंद बाबा, किशोर बाबा और कन्याश्रम के संरक्षक पुरुब गंथी की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी थी। 5 लोगों की इस वीभत्स घटना को ईसाई उग्रवादियों द्वारा कन्याश्रम में घुसकर का एक बड़े दुस्साहस के साथ सम्पन्न किया गया था।

संदर्भ

ट्रुथ बिहाइंड द मर्डर ऑफ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती
विश्व संवाद केंद्र, भुवनेश्वर उड़ीसा द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक

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