गर्वित हिन्दू होना आवश्यक है

25 Aug 2024 11:15:15


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कुछ दिनों पहले बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हुआ
, उसपर तमाम लेख लिखे गए। इन लेखों पर लोग पूछते दिखे कि हिन्दू अपनी सुरक्षा के लिए आखिर करे तो क्या करें?


इसका उत्तर तमाम ज्ञानीजनों ने दिया, कि घर में एक हथियार रखो, मजहबियों का आर्थिक बहिष्कार करो इत्यादि।


उपरोक्त बातें ठीक हो सकती हैं। पर मेरा विचार है कि उत्तम उपाय यह है कि आप गर्विष्ठ हिन्दू बनें। मैं देखता हूँ कि आम हिन्दू भले ही वह धार्मिक ही क्यों न हो, धर्म को लेकर बहुत संकुचित है। या तो गर विश्वास है तो बिना वजह घबराता है, या स्वयं ही धार्मिक क्रियाकलापों को अनावश्यक मानकर मखौल उड़ाता है।


आप खुद के घरों में देखिए। मंत्र जाप करने वाला पुरूष या महिला, कैसे बुदबुदाते हुए मंत्र जाप करते हैं। जबकि उनके पास शानदार आवाज है, वे बुलंद स्वर में मंत्र जाप कर सकते हैं। पड़ोसियों को देखिए। वे किसी के घर से आती घण्टी की ध्वनि, या शंखनाद को कैसे तिरस्कार से देखते है कि देखो कैसा मूर्ख है जो घण्टी बजा रहा है।


आप राह चलते लोगों से मिलते हैं तो हाय, हेलो करते हैं, हाथ मिलाते हैं। राम-राम, राधे-राधे, हाथ जोड़कर नमस्कार कहना तो जैसे भूल ही गए हैं।


बांग्लादेश में जिन्होंने आप पर अत्याचार किया था, उसके मजहबी भाइयों को देखिए। वे कैसे आपसी मुलाकातों में सगर्व, बुलंद आवाज में सलाम करते हैं, कैसे उनके माथे पर सजदा करते-करते काला निशान पड़ जाता है। और एक हम और आप हैं जो नमस्ते की जगह हाय करते हैं, घर के छोटे से मन्दिर में पूजा करने वाले स्त्री-पुरुष को तिरस्कार या उदासीन भाव से देखते हैं, या स्वयं पूजा करते हों तो तिलक लगाकर घर से बाहर निकलने में संकोच करते हैं।


व्यक्तिगत रूप से यह संकोच, सामुहिक रूप से कर्मकांडों का पालन करने वाले व्यक्ति का तिरस्कार, समग्र रूप से आपको कमजोर करता चला जाता है।


“आप देखिए कि अगले पक्ष के बुद्धिजीवी कभी भी अपने मजहबी कर्मकांडी साथियों का मजाक नहीं उड़ाते, बल्कि बौद्धिक, आर्थिक स्तर पर उनका सहयोग करते हैं। और आप, आप तो जैसे बहाना खोजते हैं कि कहां से आपको शर्मिन्दा होने का अथवा करने का अवसर मिल जाये। कोई एक व्यक्ति, आपराधिक मनोवृत्ति वाला व्यक्ति कोई दुष्कर्म कर जाए तो आप हिन्दू होने को लेकर शर्मिंदा हो जाते हैं। भले ही उसे इस दुष्कर्म के लिए धर्म की ओर से प्रोत्साहित न किया गया हो। एक बाबा भ्रष्ट दिखे तो सारे संत बुरे हैं। एक पंडित बुरा हो तो सारे ब्राह्मण बुरे हैं। एक बनिया चोर हो तो सारे बनिये खून चूसने वाले जोक हैं, एक कर्मकार चोर हो तो उस समुदाय के सारे लोग तो हैं ही नीच।”


कावंरियों से, धार्मिक मेलों से, धार्मिक यात्राओं से, धार्मिक चंदों से, पूजा-पंडालों से आपको ही दिक्कत होती है। आप घर में चाय सुड़कते हुए, रोटी चबाते हुए इन्हें निरर्थक घोषित कर देते हैं। तनिक सोचिए कि कल को जब आपके मुहल्ले में मजहबी हमला हुआ तो आपकी रक्षा हेतु आपके समाज का कौन सा तबका सामने आएगा? आपकी तरह घर पर चाय-समोसे खा कर सतत आलोचना करने वाले लोग, या इन धार्मिक पंडालों, यात्राओं का आयोजन करने, उसमें भाग लेने वाले लोग?


स्वयं को जिंदा रखना है तो खुद को थोड़ा सा बदलिए। घर पर तलवार रखना उतना जरूरी नहीं, जितना अपनी सोच को बदलना है। अपने अंदर गर्व पैदा कीजिये कि आप हिन्दू हैं! ठाकुर, बाभन, जाट, जाटव, गुप्ता, वर्मा वाला गर्व अपनी जगह, पर हिन्दू होने का गर्व इन सब चीजों से ऊपर रखिये।


शान से तिलक लगाइए, बुलंद आवाज में राम-राम कहना सीखिए, धार्मिक कर्मकांडों में मन और धन से भागीदारी कीजिये। अपने पक्ष के बुद्धिजीवियों को नैरेटिव बनाने वाले योद्धा और पंडालों, यात्राओं में भाग लेने वाले लड़कों को अपना फुट-सोल्जर मानकर सम्मान दीजिये, सहयोग कीजिये।

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आपसी मतभेदों पर बात कीजिये, तर्क कीजिये पर मन में मैल न रखिए। घर में आग लगी हो तो पड़ोसी ही मदद कर सकता है। अब आप अपने पड़ोसी की अर्थात अपने हिन्दू भाई की इज्जत नहीं करते, उसे एक जाति में पैदा होने के कारण स्वयं से हीन मानते हैं, दूसरी जाति में पैदा होने के कारण पाखंडी मानते हैं, उसके परदादा के परदादा ने आपके परदादा के परदादा को छोटा माना था, इस आधार पर दुर्भाव रखते हैं, मांसाहारी होने के कारण राक्षस मानते हैं, धनवान होने के कारण लुटेरा, गरीब होने के कारण भिखारी मानते हैं, तो जब आग लगेगी तो वो क्यों आएगा आग बुझाने? आज आप जलेंगे, और कुछ समय बाद जलेगा वो भी।


बुद्धि और मुट्ठी को कहां खोलना है और कहां बन्द रखना है, इसकी सलाहियत पैदा कीजिये। हिन्दू भाई, हिन्दू प्रतीक, हिन्दू मान्यता, हिन्दू कर्मकांडों को सगर्व धारण कीजिये। इससे एकात्म दिखेगा, आप बलवान दिखेंगे। हिम्मत बंधेगी। बिखरे तिनके हैं आप, एकजुट होइए, फिर देखिए कि आप क्या बन जाते हैं।


लेख

अजीत प्रताप सिंह

लेखक - अभ्युथानाम (पुस्तक)
स्वतंत्र टिप्पणीकार

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