बस्तर की अनसुनी कहानी (भाग - 1): 14 वर्ष की आयु में नक्सल हिंसा का शिकार हुए महादेव दुधी की पीड़ा

29 Sep 2024 14:03:34

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'बस्तर की अनसुनी कहानी', यह द नैरेटिव की एक विशेष शृंखला है, जिसमें हम आपको बताने वाले हैं माओवादियों के आतंक की कहानी, उन पीड़ितों की कहानी जिन्होंने इस कम्युनिस्ट आतंक का दंश झेला है, उन बस्तरवासियों की कहानी जो नक्सलियों की हिंसा का शिकार हुए हैं। इस पहले भाग में हम आपको बताने वाले हैं, महादेव दुधी की कहानी।


आज जब छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवादियों के विरुद्ध लगातार आक्रामक अभियान चलाए जा रहे हैं, तब चारों ओर यह चर्चा हो रही है कि अब माओवादियों का अंत निकट है। लेकिन वर्ष 2010 ऐसा समय था जब माओवादी खुलेआम स्थानीय ग्रामीणों पर हमला करते थे, और केंद्र की तत्कालीन सरकार केवल और केवल नई नीति और रणनीति बनाने की बात करती थी।


यह वो दौर था जब एक के बाद एक देश के अलग-अलग हिस्सों में माओवादी आतंकी वारदातों को अंजाम दे रहे थे। उसी दौर की एक घटना हुई थी 17 मई, 2010 को। इस दिन माओवादियों ने बस्तर की आम जनता का नरसंहार किया था।

“17 मई की दोपहर को सुकमा से निकली एक निजी सवारी बस पर माओवादियों ने आईईडी विस्फोट कर हमला किया था, जिसमें 44 लोग मारे गए थे। मरने वालों में 26 लोग सामान्य नागरिक थे जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। वहीं इस हमले में जो लोग गम्भीर रूप से घायल हुए उनमें से एक थे महादेव दुधी।”

इस हमले के कारण महादेव दुधी ने अपना दाहिना पैर खो दिया और वर्तमान में बैसाखी के सहारे चलने को विवश हैं। द नैरेटिव से विशेष बातचीत में उन्होंने पूरी घटना का विवरण दिया है, जिसमें उन्होंने बताया कि जब यह घटना हुई तब वह स्कूल में पढ़ते थे और उनकी आयु मात्र चौदह वर्ष थी। इस घटना के बाद ना सिर्फ़ उन्होंने अपना एक पैर खो दिया, बल्कि इस घटना ने उनके लिए जीवन को संघर्षशील बना दिया। महादेव दुधी ने बताया कि जिस बस में माओवादियों ने हमला किया था, वह एक निजी बस थी, जिसमें आम नागरिक सफर करते थे।
 
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दरअसल इस घटना को अंजाम देने के लिए माओवादियों ने सड़क पर पहले से ही विस्फोटक प्लांट कर रखा था। यह हमला चिंगावरम के अंदरूनी सड़क में किया गया था। हमले का स्तर इसी से समझा जा सकता है कि जहां यह हमला हुआ उस स्थान पर 10 फीट का गड्ढा बन चुका था।

छत्तीसगढ़ के तत्कालीन शीर्ष पुलिस अधिकारी में से एक ने मीडिया में बयान देते हुए कहा था कि 'यह किसने सोचा था कि माओवादी आम नागरिकों को भी इस तरह निशाना बनाएंगे?'
 
सेना के पूर्व ब्रिगेडियर एवं कांकेर में स्थित काउंटर-टेरर एवं जंगल वॉरफेयर कॉलेज के तत्कालीन डायरेक्टर बीके पंवार ने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि 'माओवादियों के पास जरूर आईईडी विस्फोटकों का एक नक्शा है, जैसा सेना के पास होता है। यह विस्फोटक कोई एक रात में प्लांट नहीं किए गए हैं। इसे संभवतः तब रखा गया है, जब रोड का निर्माण हो रहा था।'

“गौरतलब है कि इस माओवादी आतंकी हमले के ठीक 6 सप्ताह पहले तत्कालीन दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला क्षेत्र में माओवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला किया था, जिसमें कम्युनिस्ट नरपिशाचों ने 76 जवानों का नरसंहार किया था।”

 
यह जानना भी जरूरी है कि इस घटना के बाद केंद्र की सरकार और मीडिया का क्या रवैया था। एक तरफ जहां केंद्र की कांग्रेस सरकार नक्सल नीति-रणनीति की समीक्षा का नाटक कर रही थी, वहीं दूसरी ओर कम्युनिस्ट मीडिया द्वारा ऐसा नैरेटिव गढ़ा जा रहा था कि इस हमले के लिए माओवादी नहीं बल्कि एसपीओ के जवान जिम्मेदार हैं।
 
इस घटना पर एनडीटीवी की रिपोर्ट में कहा गया कि 'जो एसपीओ के जवान बस में सवार थे वो घटना से कुछ दिनों पूर्व हुए नक्सल ऑपरेशन का हिस्सा थे, जिसमें 2 माओवादी मारे गए थे। लेकिन इस ऑपरेशन में माओवादियों का लोकल कमांडर गणेश बच गया था।'
 
एनडीटीवी ने रिपोर्ट किया कि ऑपरेशन के बाद कुछ जवानों ने बस पकड़ी, जिसकी सूचना माओवादियों को मिलना उनकी बेहतर इंटेलिजेंस और संपर्क का नेटवर्क दर्शाता है।' हम सभी जानते हैं कि एनडीटीवी ने उस दौरान कैसे एक पक्षीय पत्रकारिता से कम्युनिस्ट लॉबी के लिए विमर्श खड़ा किया है।
 
एनडीटीवी के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक 'अनजान सूत्र' के हवाले से लिखा था कि 'माओवादियों को जवानों के मूवमेंट की जानकारी थी, जिसका उन्होंने फायदा उठाया है। जवानों ने ऑपरेशन प्रक्रिया का उल्लंघन किया और बस में बैठ गए।'
 
क्या मीडिया यह नैरेटिव सेट करने में लगी थी कि यह हमला माओवादियों के द्वारा किया गया कोई आतंकी कृत्य नही, बल्कि जवानों की गलती है ? सबसे बड़ा सवाल है कि इतना बड़ा हमला होने के बाद भी मीडिया ने महादेव दुधी जैसे पीड़ितों की व्यथा को समझने का प्रयास क्यों नहीं किया ? महादेव दुधी जैसे पीड़ित बच्चों की स्थिति को देश को क्यों नहीं दिखाया ?


महादेव दुधी उन्हीं पीड़ित बस्तरवासियों में से हैं जिन्होंने दिल्ली जाकर अपनी व्यथा सुनाई। उन्होंने दिल्ली की मीडिया से बात की, जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में अपनी पीड़ा बताई और देश से पूछा कि "मेरा क़सूर क्या है ?"

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यह पूरे देश को समझना होगा कि माओवादी रूपी कम्युनिस्ट विचार के इस आतंक ने बस्तर को ना सिर्फ़ अशांत किया, बल्कि बस्तरवासियों की ज़िंदगी को नर्क बना दिया है।
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