इस लेख की शुरुआत करते हुए आपके सामने कुछ परिस्थितियां रखते हैं, जिसका उत्तर आप स्वयं सोचिएगा। यदि आप शहर के किसी तथाकथित प्रतिष्ठित 'पॉश कॉलोनी' में रहते हैं और उसी कॉलोनी का ही एक व्यक्ति यदि अपने मृत पिता के देह को अपनी निजी जमीन पर दफनाने की बात करे, जो जमीन आपकी जमीन या घर से लगी हुई है, तो आप क्या करेंगे ?
चलिए एक और परिस्थिति देखते हैं। यदि आप किसी गांव में रहते हैं तो भी क्या आप अपनी जमीन से लगी जमीन पर उसके निजी स्वामित्व के व्यक्ति को शव दफनाने की अनुमति देंगे क्या ?
संभवतः एक सामान्य व्यक्ति का उत्तर होगा नहीं! किसी भी परिस्थिति में अपने जमीन से लगी जमीन पर किसी के शव को दफनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। लेकिन यही बात सुप्रीम कोर्ट तक जाए तब क्या होगा ?
चलिए एक और परिस्थिति रखते हैं, यह प्रश्न आम जनता के लिए भी है और सर्वोच्च न्यायालय के 'माननीय' न्यायाधीशों के लिए भी है। क्या आपने आवासीय परिसर में किसी व्यक्ति को उसकी जमीन पर शव दफनाने की अनुमति देंगे ? जाहिर सी बात है, आपका उत्तर यहां भी नहीं ही होगा।
जब आपके और मेरे जैसे शहरी समाज के लोग अपनी जमीन से सटे भूखंड पर किसी व्यक्ति को शव दफनाने की अनुमति नहीं दे सकते, तो ऐसे में बस्तर के सनातनी जनजातियों पर इसके लिए दबाव क्यों बनाया जा रहा है ?
याचिका के अनुसार याचिकाकर्ता बस्तर के छिंदवाड़ा गांव का निवासी है, जो ईसाई रिलीजन मानता है। याचिकाकर्ता रमेश बघेल के पिता गांव में ही ईसाई पादरी थे, जिसकी मृत्यु 7 जनवरी को हुई। मृत्यु के बाद ईसाई व्यक्ति अपने पिता के शव को गांव के सनातनी जनजातियों के कब्रिस्तान में ही दफनाना चाहता था, जिसका स्थानीय ग्रामीणों ने विरोध किया।
गांव में विवाद पैदा करने के बाद रमेश बघेल ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उसने गांव के सनातनियों के कब्रिस्तान या अपनी निजी भूमि पर शव दफनाने की बात कही थी, जिसे हाईकोर्ट खारिज कर दिया था।
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान राज्य सरकार ने कहा था कि गांव में अलग से कोई ईसाई कब्रिस्तान नहीं है, यदि याचिकाकर्ता गांव से 20 किलोमीटर दूर ईसाई कब्रिस्तान में शव दफ़नाता है, तो कोई आपत्ति नहीं होगी।
इस मामले के हाईकोर्ट में खारिज होने के बाद याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसकी सुनवाई 20 जनवरी को हुई। कॉलिन गोंजाल्विस जैसे रोहिंग्या समर्थक एवं कम्युनिस्ट-ईसाई गठजोड़ के वकील के माध्यम से याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपनी दलील रखी, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 'यह आश्चर्य है कि शव 7 जनवरी से जगदलपुर के जिला अस्पताल के शवगृह में रखा हुआ है।' अपनी अन्य बातों को कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि 'हम दुःखी हैं।'
लेकिन यह इस पूरे मामले पर दूसरा पक्ष रख रहे वकील तुषार मेहता ने कोर्ट में कहा कि शव को सरकार के खर्च पर भी ईसाई कब्रिस्तान में ले जाकर दफनाया जा सकता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि गांव का कब्रिस्तान केवल हिन्दू जनजातियों के लिए है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि इस पूरे मामले को भावनात्मक दृष्टिकोण से नहीं, अपितु संवैधानिक दृष्टि से देखा जाना चाहिए। तुषार मेहता ने निजी भूमि पर दफनाने का भी विरोध करते हुए कहा कि 'यह निषिद्ध है क्योंकि दफनाने के बाद भूमि का चरित्र 'पवित्र' हो जाता है।
दरअसल जिस तरह से ईसाइयों के द्वारा बार-बार बस्तर के पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में जबरन शव दफनाने का षड्यंत्र चल रहा है, उसे समझना जरूरी है। पहले यह षड्यंत्र स्थानीय स्तर पर चलाया गया, जिसके बाद हाईकोर्ट का दुरुपयोग कर इन गतिविधियों को अंजाम दिया गया और अब सुप्रीम कोर्ट जाकर इस विषय को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय बनाने की कोशिश की जा रही है।
इससे पहले जगदलपुर के समीप छिंदबहार गांव के एक ईसाई व्यक्ति की मौत के बाद हाईकोर्ट के माध्यम से उसके शव को गांव में ही दफनाने का निर्णय आया, जिसके चलते क्षेत्र में वैमनस्यता की स्थिति निर्मित हुई।
हाल ही में एक के बाद एक हाईकोर्ट में इस तरह के केस सामने आए हैं, जिसमें ईसाइयों ने कोर्ट में याचिका लगाकर निजी भूमि या गांव के सनातनी जनजातियों के कब्रिस्तान में ही शव दफनाने की अपील की, लेकिन उनकी याचिका हाईकोर्ट में बुरी तरह से खारिज हुई।
यही कारण है कि अब यह पूरा मिशनरी तंत्र सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा है, जो अब इस विषय के अंतरराष्ट्रीयकरण की साजिश कर रहा है। लेकिन सच्चाई यही है कि भारत में किसी भी व्यक्ति का उसके धर्म के आधार पर निर्धारित कब्रिस्तान में ही अंतिम संस्कार किया जा सकता है।
इस विषय पर ग्रामीणों का भी कहना है कि कब ईसाई कब्रिस्तान में 'नमाज ए जनाजा' पढ़ कर किसी मुस्लिम को दफन नहीं किया जा सकता, जब किसी इस्लामिक कब्रिस्तान में ईसाई व्यक्ति का पादरी द्वारा प्रेयर कर शव दफन की प्रक्रिया नहीं की जा सकती, तो क्यों सनातनी जनजातियों की जमीन पर ईसाई व्यक्ति के शव को ईसाई पद्धति से करने का दबाव डाला जा रहा है।