बस्तर से ग्राउंड रिपोर्ट (भाग -1) : शव दफन विवाद पर क्या है छिंदावाड़ा गांव की स्थिति ?

29 Jan 2025 12:07:48

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बस्तर के छिंदावाड़ा गांव में
, जहां ईसाई व्यक्ति के शव दफन को लेकर तीन सप्ताह तक विवाद चला और मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, उसी गांव में जाकर द नैरेटिव की टीम ने ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की है। यह ग्राउंड रिपोर्ट कुछ भागों में होगी, जिसमें घटना की जानकारी, ग्रामीणों की मांग, ईसाई पक्ष की मांग और कानूनी पहलू पर विस्तृत रिपोर्ट होगी, जिससे पूरे मामले को समझने में आपको सुविधा हो। इस ग्राउंड रिपोर्ट के लिए हमने गांव के जनजातीय ग्रामीणों, माहरा समाज के ग्रामीण, ईसाई पक्ष (याचिकाकर्ता), पुलिस अधिकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक जन प्रतिनिधियों एवं वकीलों से बात की है। पढ़िए बस्तर से ग्राउंड रिपोर्ट का पहला भाग।


छत्तीसगढ़ के बस्तर के एक गांव का मामला सुप्रीम तक पहुंचा था, जिस पर सोमवार 27 जनवरी को फैसला आया है। ईसाई व्यक्ति के शव दफन को लेकर यह मामला था, जिसे लेकर लगभग 3 सप्ताह तक गांव में विवाद की स्थिति बनी रही। जिला मुख्यालय जगदलपुर से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित छिंदावाड़ा गांव में एक ईसाई व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके बेटे ने गांव के भीतर ही स्थित हिंदुओं के मरघट में शव दफनाने की बात कही, जिसमें वह ईसाई रीति रिवाज से शव दफनाना चाहता था।

रमेश बघेल (याचिकाकर्ता) के पिता सुभाष बघेल (मृतक) गांव में ईसाई पादरी के रूप में कार्य करते थे, जिनकी मृत्यु 7 जनवरी, 2025 को हुई थी। सुभाष बघेल के शव को हिंदुओं के मरघट में दफनाने की बात सामने आने पर गांव के हिंदु ग्रामीणों ने इसका विरोध किया। ग्रामीणों का कहना था कि चूंकि मृतक ने ईसाई रिलीजन अपना लिया है, और उसका कफ़न-दफन ईसाई रीति-रिवाज से होना है, इसीलिए गांव के हिंदु मरघट में इसकी अनुमति नहीं दी जाएगी।


गांववालों से अनुमति नहीं मिलने के बाद मृतक ईसाई पादरी के बेटे रमेश बघेल ने पहले प्रशासन और फिर हाईकोर्ट में शव दफनाने को लेकर याचिका लगाई, जिसे हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया। लेकिन हिंदुओं के मरघट में शव दफनाने की जिद ऐसी थी कि रमेश बघेल ने इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में शव दफन के लिए याचिका लगाई, लेकिन अंततः न्यायालय के आदेश के बाद सोमवार देर रात छिंदावाड़ा गांव से तकरीबन 20-25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित करकापल ईसाई कब्रिस्तान में ही शव दफन किया गया।


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द नैरेटिव की टीम ने जब इस मामले को लेकर ग्राउंड में पहुँची, तब स्थितियां, परिस्थितियां और कुछ तथ्य बिल्कुल ही अलग दिखाई दिए। ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान सबसे पहले यह जानकारी सामने आई कि मीडिया एवं अन्य माध्यमों से जिस मृतक एवं याचिकाकर्ता को अनुसूचित जनजाति का व्यक्ति बताया जा रहा था, वह परिवार वास्तव में अनुसूचित जनजाति का नहीं, बल्कि अनुसूचित जाति से है।


मृतक का परिवार बस्तर के माहरा जाति है, जिन्हें वर्ष 2018 के आदेश में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया है। तो सबसे पहली बात यही है कि मृतक जनजाति समाज या जनजाति परंपरा से नहीं है, जोकि पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के लिए एक विशिष्ट प्रावधान के भीतर नहीं आते।


विभिन्न आरोपों में यह भी सुनने-देखने को मिला कि गांववालों ने मृतक के शव दफन का विरोध किया। सुप्रीम कोर्ट में भी कहा गया कि मृतक के सम्माजनक तरीके से शव दफन के लिए व्यवस्था नहीं हुई, इसका उन्हें दुःख है। वहीं कुछ पत्रकारों द्वारा एवं सोशल मीडिया में कहा गया कि गांव वाले मृतक को 2 गज जमीन नहीं दे रहे। लेकिन इसकी सच्चाई जमीन पर कुछ और ही है।


“दरअसल ग्रामीणों का विरोध शव दफनाने से नहीं है, ग्रामीणों का विरोध शव दफन के दौरान की जाने वाली पद्धति से है। द नैरेटिव के संपादक से बात करते हुए ग्रामीणों ने बताया कि गांव के मरघट में रूढ़ि प्रथा को मानने वाले लोग ही दफन किए जाते हैं, ईसाई प्रथा को मानने वाले नहीं। उनका कहना है कि जब वो शव दफन करते हैं तो विभिन्न प्रकार की प्रथाएं होती है, पुजारी होता है, दिया जलाया जाता है और मृतक के शव पर केवल एक कफ़न होता है। वहीं दूसरी ओर ईसाई रीति रिवाज में मृतक को ताबूत में डालकर, अच्छे नए कपड़े पहनाकर और यो और परफ्यूम लगाकर दफन किया जाता है, जो रूढ़ि प्रथा के खिलाफ है।”


द नैरेटिव की टीम से बात करते हुए ग्रामीणों ने बताया कि गांव में आवंटित मरघट केवल रूढ़ि प्रथा को मानने वाले हिंदुओं के लिए है, किसी अन्य रिलीजन-मजहब के लिए नहीं है। ग्रामीणों का कहना है कि वो अभी भी रमेश बघेल के परिवार को शव दफनाने की अनुमति दे देंगे, यदि उनका परिवार शव को रूढ़ि प्रथा के अनुसार दफन करता है।


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वहीं दूसरी ओर रमेश बघेल से बातचीत में यह पता चला कि वह अपने पास्टर पिता के शव को गांव में ही दफनाना चाहता है, लेकिन वह रूढ़ि प्रथा को नहीं मानता। रमेश बघेल ने कहा कि माहरा समाज के लोग चाहे वो हिंदु हो या ईसाई, दोनों ही शव दफनाते हैं।

लेकिन ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान माहरा समाज के अन्य लोगों से बातचीत में यह जानकारी सामने आई कि किसी भी व्यक्ति के मृत्यु के कारण पर उसके अंतिम संस्कार की विधि का निर्धारण किया जाता है। यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु कोई गंभीर या संक्रामक बीमारी या लकवा से होती है, तो उसका दफनाने के बजाय दाह संस्कार के माध्यम से अंतिम संस्कार किया जाता है।



ग्रामीणों के साथ हुई बातचीत में यह जानकारी भी सामने आई कि रमेश बघेल ने अपने दादाजी के ईसाई होने एवं गांव में 1980 के दशक से ईसाइयों के होने को लेकर जो जानकारी कोर्ट और मीडिया को दी है, वह भी संदेहास्पद है।

एक ओर जहां ग्रामीणों का कहना है कि ईसाई व्यक्ति रमेश के दादाजी 'मोहरया' या 'मौर्या' थे, वहीं दूसरी ओर रमेश बघेल का कहना है कि उसके दादा ने ईसाई रिलीजन अपना लिया था। हालांकि इसकी सच्चाई भी हमने अपने ग्राउंड रिपोर्ट में बाहर निकालने का प्रयास किया है, जिसे हम आपके सामने अगले भाग में रखेंगे।


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बस्तर से द नैरेटिव की इस विशेष ग्राउंड रिपोर्ट में कई ऐसी जानकारी सामने आई है, जो शासन-प्रशासन को भी चौकन्ना करने के लिए पर्याप्त है। पक्के चर्चों का निर्माण हो, या ईसाइयों की संख्या, जमीन पर कब्जा हो या बाहरी पादरियों की गांव में आवाजाही, इन सभी विषयों पर इस ग्राउंड रिपोर्ट के अगले भागों में पढ़िए विस्तृत रिपोर्ट, सिर्फ द नैरेटिव पर।

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