वामपंथ का माओवादी चरित्र (भाग - 2)

15 Feb 2025 11:49:19

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वर्ष
1940 आते-आते माओ ने अपनी प्रसिद्ध न्यू डेमोक्रेसी के सिद्धांत को प्रतिपादित किया और इसी कालखंड में कुआमिंतांग के सैन्य दमन को स्वीकृति दी। अगले पांच-छह वर्षों में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में माओ का कद अप्रत्याशित रूप से बढ़ा और अंततः वर्ष 1945 में पार्टी ने माओ के दर्शन को आधिकारिक रूप से पार्टी के सिद्धांतों के रूप में स्वीकृति दे दी।


इस कालखंड में जहां एक ओर पार्टी में माओ का प्रभाव बढ़ा तो वहीं दूसरी ओर युद्ध की तत्कालीन परिस्थितियों में चीनी आम जनमानस में रेड आर्मी की ओर आकर्षण भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ा। इसके परिणाम स्वरूप चीन में रेड आर्मी एक मजबूत सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित हुई। इसने निर्णायक रूप से कुआमिंतांग एवं उसका सहयोग कर रहे अमेरिका पर बढ़त बनाई।


वर्ष 1946 में पार्टी ने रेड आर्मी को आधिकारिक रूप से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के रूप में परिवर्तित किया। वहीं परिवर्तन के लिए आतुर जनमानस में कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता में हुई वृद्धि ने माओं को इसे एक अधिनायकवादी, तानाशाही तंत्र के रूप में स्थापित करने में भरपूर सहायता की।


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इसके परिणामस्वरूप माओ की अगुवाई में चीनी पार्टी ने एक पार्टी आधारित तानाशाही संगठन की नींव तैयार की और अंततः वर्ष 1949 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा बीजिंग को कब्जाए जाने के उपरांत चीन में आधिकारिक रूप से एक क्रूर, निष्ठुर एवं दमनकारी अधिनायकवादी व्यवस्था की स्थापना हुई।


“कभी माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है, अब सत्ता में काबिज होने के उपरांत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बंदूकें अपने ही नागरिकों का खून बहाने को तैयार थी।”

 


चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ढाई दशक के रक्तपात के उपरांत सत्ता पर काबिज हुई थी और सत्ता पाने के अगले ढाई दशकों में दुनिया ने यह देखा कि कैसे हिंसा के बल पर कम्युनिस्ट समाज बनाने की सनक ने करोड़ो लोगों को काल के गर्त में पहुंचा दिया। कम्युनिस्ट पार्टी अपने रक्तरंजित उद्देश्यों की अभिपूर्ती के लिए सतत नरसंहारों में लीन थी।


भूमि सुधार नरसंहार


वर्ष 1949 में सत्ता हथियाने के उपरांत माओ जेडोंग ने वर्ष 1949-50 में तथाकथित भूमि सुधारों की घोषणा की। इन सुधारों के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी की देख-रेख में गांव-गांव में कथित न्यायाधिकरणों की घोषणा की गई। इन न्यायाधिकरणों के माध्यम से धनी व्यक्तियों एवं उनके परिवारों को निशाना बनाया गया।


हालांकि इसके मूल में कम्युनिस्ट पार्टी का उद्देश्य कुआमिंतांग के कथित समर्थकों को ख़त्म करना था। इस दौरान स्थानीय पुलिस और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थकों की देख-रेख में लाखों चीनी नागरिकों की बर्बरता से हत्या की गई।


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इस संदर्भ में माओ की कम्युनिस्ट तानाशाही सरकार ने कभी भी आधिकारिक आँकड़ो की पुष्टि नहीं की। हालांकि अनुमान है कि कथित भूमि सुधारों के नाम पर कम से कम 10 लाख चीनी नागरिकों की नृशंस हत्याएं हुई। कई शोधों में इन आंकड़ों को 40 लाख तक माना जाता है। यह सत्ता में आने के उपरांत पार्टी द्वारा कराया गया पहला सुनियोजित नरसंहार था।

बुद्धिजीवियों का दमन


कम्युनिस्ट पार्टी और माओ जानते थे कि सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत रखने के लिए उन्हें विपरीत विचारधारा के बुद्धिजीवियों को रास्ते से हटा कर जनता में यह संदेश देना होगा कि चीन में किसी भी विपरीत विचारधारा के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके लिए वर्ष 1957 में माओ की अगुवाई में पार्टी ने अपनी इस अति महत्वकांक्षी अभियान 'एन्टी राइटिस्ट कैंपेन' को अमल में लाना प्रारंभ किया।


इस दौरान कम्युनिस्ट पार्टी ने "हंड्रेड फ्लावर्स कैंपन" के माध्यम से पूरे देश में बुद्धिजीवियों से पार्टी की कार्यप्रणाली एवं विभिन्न वैचारिक दर्शन को लेकर सुझाव मांगे। जब कम्युनिस्ट पार्टी के इस आह्वान पर देश भर के बुद्धिजीवियों ने अपनी सहभागिता दिखाते हुए पार्टी की कार्यप्रणाली में सुधार एवं विपरीत विचारों को फलने फूलने से संबंधित दर्शन को सामने रखा, तब अपनी वामपंथी कुटिलता की असलियत दिखाते हुए उन्हें पार्टी समर्थक एवं पूंजीवादी समर्थक की दो श्रेणियों में विभक्त किया गया।


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इन कथित पूंजीवादी समर्थकों को अगले 2 वर्षों के दौरान सार्वजनिक अपमान झेलने से लेकर यातना शिविरों में प्रताड़ित किया गया, और तो और इन्हें जेल में डाल दिया गया। यह सभी राजनैतिक बंदी थे जो कम्युनिस्ट पार्टी के षड्यंत्र का शिकार हुए थे।


विपरीत विचार के दमन को टारगेट कर चलाए गए इस अभियान के तहत कम्युनिस्ट पार्टी ने देश भर के 5 लाख से भी अधिक विद्वानों को विपरीत विचारधारा के विषय में अपना दर्शन रखने के लिए दंडित किया।


आंकड़ों के अनुसार इस दौरान यातना शिविरों में प्रताड़ना से ढाई हजार से भी अधिक विद्वानों एवं बुद्धिजीवियों की मृत्यु हुई। पार्टी ने देशभर के विद्वानों को स्पष्ट संदेश दिया था कि चीनी भूमि पर वामपंथ के अलावा किसी और विचार के दर्शन की कल्पना करने का साहस भी उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की दृष्टि में देशद्रोही बना सकता है।


ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड


भूमि सुधारों तथा एन्टी राइटिस्ट कैंपेन के नाम पर विरोधियों एवं बुद्धिजीवियों के दमन के उपरांत माओ की अगुवाई में पार्टी ने सख्ती से चीन को माओवादी व्यवस्था के रूप में परिवर्तित करने के उद्देश्य से वर्ष 1958 में 'द ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड की घोषणा की। इस अभियान के माध्यम से माओ का उद्देश्य अपनी अति वामपंथी नीतियों को कठोरता से लागू करना था।


इस अभियान के दौरान पार्टी के अधिकारियों द्वारा कुल 23,000 गांवों को चिन्हित किया गया था। किसानों को उनकी भूमि पर कृषि के अधिकार से वंचित कर उनसे सामूहिक खेती कराई जाने लगी। यहां तक कि भोजन के लिए सामूहिक रसोई, महिलाओं एवं बच्चों के लिए अलग से कार्यशालाओं का आयोजन किए जाने लगा। माओ ने कृषकों एवं उनके परिजनों का अर्ध सैन्यकरण कर दिया था।


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माओ का मानना था कि कृषि क्षेत्र की इस कम्युनिस्ट क्रांति से चीन का निर्यात बहुत बढ़ जाएगा। फलस्वरूप माओ ने निर्यात को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाया। हालांकि यह अव्यवहारिक नीति ना केवल मूल रूप से अपरिपक्वता एवं अदूरदर्शिता को समेटे हुई थी, अपितु इस अभियान को सफल दिखाने के क्रम में माओ के अधिकारियों ने उन्हें उत्पादन के गलत आंकड़े भी सौंपे। इसके परिणामस्वरूप केवल एक वर्ष में ही चीनी जनता आकाल से जूझने लगी।


कम्युनिस्ट पार्टी और माओ जब तक अपनी इस विफल नीति की विफलता को समझ कर इसकी समाप्ति की घोषणा करते तब तक यह विफल क्रांति दो वर्ष पूरा कर चुकी थी। लाखों लोगों को कालजई आकाल ने निगल लिया था, लाखो लोगों को सरकार की नीतियों का सख्ती से अनुपालन ना करने के कारण बर्बरता से कुचला गया।


आँकड़ो को छुपाने के लिए पार्टी ने अगले दो दशकों तक जनगणना पर प्रतिबंध लगाया, सर्वमान्य आँकड़ो के अनुसार अति वामवादी विचारों के इस प्रयोग ने कम से कम 3 करोड़ से अधिक लोगों की जान ली। यह इतिहास में किसी मानव निर्मित परिस्थिति जनित सबसे बड़ी त्रासदी थी। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी और माओ की वामपंथी कुंठा अभी शांत नहीं हुई थी और आने वाले वर्षों में चीनी भूमि पर वामपंथी प्रयोग जारी रहने वाला था।

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