दशकों से कम्युनिस्ट आतंकवाद का दंश झेल रही छत्तीसगढ़ की जनता बीते कुछ महीनों से यह देखकर प्रसन्न है कि प्राकृतिक सुंदरता से भरी दंडकारण्य की भूमि को माओवाद रूपी राक्षस से छुटकारा दिलाने के लिए कड़े कदम उठाए जा रहे हैं।
बस्तर में नक्सल आतंकियों पर कड़े प्रहार हो या फोर्स के लिए सुरक्षा कैंप स्थापित करना हो, आम जनता के लिए बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था करनी हो, या बस्तर में खेल-कूद के विकास का मार्ग बनाना हो, इन सभी क्षेत्रों में शासन-प्रशासन पूरी दृढ़ता से कार्य कर रहा है।
नक्सल उन्मूलन के लिए ऑपरेशन कगार भी चलाया जा रहा है, जो ना सिर्फ बस्तर को लाल आतंक से मुक्त कर रहा है, बल्कि क्षेत्र में विकास के लिए भयमुक्त वातावरण भी तैयार कर रहा है।
फोर्स के द्वारा किए जा रहे इस नक्सल उन्मूलन अभियानों से ना सिर्फ माओवादी आतंकी संगठन बौखलाया हुआ है, बल्कि अब इन नक्सलियों के लिए शहरों में बौद्धिक ढाल प्रदान करने वाले और वैचारिक रूप से नक्सलियों का समर्थन करने वाले भी अपनी तिलमिलाहट जाहिर कर रहे हैं। शहरों में बैठे ये 'अर्बन नक्सली' बस्तर को नक्सल आतंक से मुक्त होता देख ऐसा छटपटा रहे हैं कि इन्होंने अब 'ऑपरेशन कगार' को ही खत्म करने की मुहिम चलाई हुई है।
दरअसल बीते 18 मार्च, 2025 को दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में कुछ 'स्वघोषित' बुद्धिजीवियों ने एक प्रेस कांफ्रेंस की, जिसमें उन्होंने 'नक्सलियों के मानवाधिकार' से लेकर 'सुरक्षाबलों द्वारा गांवों में बमबारी' का ज़िक्र किया।
'जनहस्तक्षेप : फासीवादी मंसूबों के खिलाफ एक अभियान' के बैनर तले किए गए इस कांफ्रेंस में शामिल 'स्वघोषित' बुद्धिजीवियों ने जो बातें कही हैं, उन्हें पढ़ते ही यह समझ आता है कि ये समूह दिल्ली के प्रेस क्लब में बैठकर नक्सलियों कि भाषा बाल रहे हैं।
बस्तर में जनजाति अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने का दावा करने वाले हिमांशु कुमार का कहना है कि "कोई भी देश अपने नागरिकों पर बमबारी नहीं कर सकता। छत्तीसगढ़ में जनजातियों के खेतों, घरों और गांवों में सुरक्षाबल बमबारी कर रहे हैं।"
हिमांशु कुमार से यह पूछा जाना चाहिए कि सुरक्षा बल ने कब गांव वालों पर बमबारी की है? कब उन्हें मारा है? जबकि सच्चाई यह है कि नक्सल आतंकियों के 'बम' के चलते सैकड़ों ग्रामीणों ने अपनी जान गंवाई है, साथ ही सैकड़ों ऐसे ग्रामीण हैं जो आज भी अपाहिज बने घूम रहे हैं।
दरअसल यह वही हिमांशु कुमार है जिसकी सच्चाई देश के सुप्रीम कोर्ट में ही सामने आ गई थी। सुप्रीम कोर्ट में हिमांशु कुमार ने याचिका लगाकर दावा किया था कि वर्ष 2009 में सुकमा में मारे गए 16 नक्सली 'स्थानीय जनजाति ग्रामीण' थे, और इस मामले की जांच की जाए। इस याचिका के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हिमांशु कुमार पर 5 लाख रुपये का जुर्माना लगाते हुए याचिका को खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि "इसकी जांच की जाए कि कहीं नक्सल (उग्रवादियों) आतंकियों को बचाने के लिए कोर्ट का इस्तेमाल तो नहीं किया जा रहा है।"
जिस व्यक्ति की गतिविधियों को लेकर स्वयं सुप्रीम कोर्ट संदेह जता चुका है, साथ ही जो व्यक्ति नक्सल एनकाउंटर करने वाले जाबांज सुरक्षाकर्मियों को ही गुनाहगार बताने में लगा हुआ है, ऐसा व्यक्ति जब 'बुद्धिजीवी' बनकर यह कह रहा है कि 'बस्तर में ऑपरेशन कगार को बंद किया जाए', तो यह समझना आसान हो जाता है कि वो किस ओर से बात कर रहा है।
हिमांशु कुमार के बाद बस्तर से ही अगला नाम था सोनी सोरी का, जो इस प्रेस कांफ्रेंस में 'ट्राइबल एक्टिविस्ट' के रूप में बैठी थी। सोनी सोरी ने कहा कि "बस्तर में एक-एक किलोमीटर की दूरी पर हजार-हजार पैरामिलिट्री फोर्स के जवान तैनात हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में जारी यह युद्ध अब मैदानों में पहुंचेगा।"
सोनी सोरी जैसी संदिग्ध नक्सल समर्थक का कहना कि 'पैरामिलिट्री तैनात है', तो यह पैरामिलिट्री बस्तर को लाल आतंक अर्थात कम्युनिस्ट आतंक से मुक्त करने के लिए तैनात है।
जिस पैरामिलिट्री को लेकर सोनी सोरी शिकायत कर रही है, वही पैरामिलिट्री बस्तर के अंदरूनी गांव-गांव में जाकर चिकित्सा, स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी, मोबाइल टॉवर जैसी बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था कर रही है।
सोनी सोरी जिन नक्सलियों के पक्ष में आवाज़ उठा रही है, उन्हीं नक्सलियों ने बस्तर के जनजातियों का जीवन नर्क बनाया है। वहीं पैरामिलिट्री फोर्स स्थानीय जनजातियों का सहयोग कर रही है।
गौरतलब है कि इसी सोनी सोरी को पुलिस ने पहले कई बार नक्सल संबंधों के चलते गिरफ्तार किया है। हालांकि साक्ष्यों के अभाव में कोर्ट ने कोई सजा नहीं सुनाई, लेकिन यह केवल 'सबूतों के अभाव' के कारण हुआ। सोनी सोरी नक्सल आतंकियों के फ्रंटल संगठन 'मूलवासी बचाओ मंच' समर्थन करती हुई भी दिखती है।
इन सब के बीच दिल्ली यूनिवर्सिटी की कम्युनिस्ट प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने भी कांफ्रेंस में वही स्टैंड लिया जो, नक्सली चाहते हैं। नंदिनी सुंदर का कहना था कि "माओवादी युद्ध का यह मॉडल ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा। छत्तीसगढ़ का युद्ध जारी है, हमने देखा कि वह किसान आंदोलन के रूप में मैदानों तक पहुंच गया है। मूलवासी बचाओ मंच पर प्रतिबंध लगा दिया गया और कोई कुछ नहीं कर पा रहा है। जनजातियों पर केवल विस्थापन का ही खतरा नहीं है। उनकी संस्कृति, भाषा और विचार पर बाहरी लोग हमले कर रहे हैं।"
अब यहां बहुत से विषय सामने आए हैं, जिन्हें एक-एक कर समझते हैं। पहली बात यह समझना आवश्यक है कि छत्तीसगढ़ में यदि युद्ध चल रहा है तो उस युद्ध को माओवादियों ने शुरू किया है, और यह युद्ध माओवादियों ने बस्तर की आम जनता पर थोपा है। बस्तर की आम जनता अपनी देव-संस्कृति, रूढ़ि परंपरा और पूजा-उपासना करने वाली है, जहां 4 दशक पहले तेलगु माओवादियों ने घुसपैठ की और अपने फायदे के लिए उन्हें हिंसा की आग में धकेल दिया।
वहीं नंदिनी सुंदर ने कहा कि 'छत्तीसगढ़ का युद्ध किसान आंदोलन के रूप में मैदानों तक फैल गया।' इसका सीधा अर्थ यही है कि मैदानों में जो किसानों का आंदोलन हो रहा है उसके पीछे भी नक्सल-माओवादी विचारक हैं, जो किसानों को भड़काकर आंदोलन करवा रहे हैं।
'मूलवासी बचाओ मंच' का पक्ष लेने वाली नंदिनी सुंदर ने यह क्यों नहीं देखा कि इस संगठन के लोग नक्सलियों के पैसों के साथ गिरफ्तार हुए हैं। यह एक ऐसा संगठन है जो बस्तर में उन तमाम गतिविधियों में संलिप्त था जो नक्सलियों के लिए माहौल बनाने का काम कर रहा था।
इसके अतिरिक्त जब बात बस्तर के लोगों के संस्कृति, भाषा, विचार और परंपराओं पर हमले की है, तो इन पर हमला करने वाले बाहरी लोग कोई और नहीं बल्कि 'नक्सलवादी' ही हैं। नक्सलियों ने ही जनजातियों के 'गोटुल' को बंद करवाया, नक्सलियों के कारण आज कई गांवों में देवगुड़ियां नहीं बन पाई और तो और नक्सल समर्थन के चलते ईसाई मिशनरियों का प्रभाव भी बढ़ता गया, जो बस्तर की मूल संस्कृति को खत्म कर रहा है।
ऐसे में नंदिनी सुंदर के तमाम दावे ना सिर्फ झूठे दिखाई पड़ते हैं, बल्कि इन दावों के पीछे एक गहरा षड्यंत्र भी दिखाई देता है। नंदिनी सुंदर जिन्हें प्रोफेसर और बस्तर पर शोध करने वाली 'बुद्धिजीवी' के रूप में परिचय कराया गया, वह दरअसल स्वयं माओवादियों के कनेक्शन में रही हैं।
सरेंडर माओवादी पोडियम पांडा ने नंदिनी सुंदर का नाम लेकर कहा था कि उसके सम्बंध माओवादियों से हैं। वहीं बस्तर में एक स्थानीय ग्रामीण की नक्सलियों द्वारा की गई हत्या में नंदिनी सुंदर को आरोपी भी बनाया गया था।
हिमांशु कुमार, सोनी सोरी, नंदिनी सुंदर के अलावा इस प्रेस कांफ्रेंस में बस्तर में जनजातियों की भूमि पर ईसाइयों के अतिक्रमण का समर्थन करने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील कॉलिन गोंजाल्विस भी मौजूद थे। गोंजाल्विस का कहना है कि "छत्तीसगढ़ में जनजातियों को बर्बर ढंग से मारा और भगाया जा रहा है। बर्बरता का यह एक नया भयानक दौर है।"
ये वही कॉलिन गोंजाल्विस है, जिन्हें बस्तर के नक्सल पीड़ितों ने उनके समर्थन में आवाज उठाने की मांग की थी, लेकिन गोंजाल्विस ने इसका कोई जवाब नहीं दिया था। एक ओर गोंजाल्विस के बगल में बैठी नंदिनी सुंदर बस्तर में स्थानीय जनजातियों की भाषा, संस्कृति और विचार पर बाहरी लोगों में हमले की बात कर रही थी, वहीं साथ में बैठे गोंजाल्विस सुप्रीम कोर्ट में बस्तर के ही जनजातियों की आस्था के विरुद्ध ईसाइयों के पक्ष में केस लड़ रहे थे। यही इन तथाकथित 'बुद्धिजीवियों' की सच्चाई है।
जब सलवा जुडूम नक्सलियों को खत्म करने को आमादा था और नक्सलियों को सलवा जुडूम से डर लगने लगा था, तब नंदिनी सुंदर जैसे लोग सुप्रीम कोर्ट जाकर सलवा जुडूम पर प्रतिबंध लगवा रहे थे, जिसका परिणाम यह रहा कि सलवा जुडूम के लोगों के हथियार तो छीन लिए गए, लेकिन नक्सलियों के हथियार उनके पास ही रहे, अंततः हजारों सलवा जुडूम सदस्य बेमौत मारे गए।
यही समूह नक्सलियों के मानवाधिकारों की बात करता रहा, लेकिन आम बस्तरवासियों के मानवाधिकार पर चुप्पी साध ली गई। सरकार ने जब ऑपरेशन ग्रीन-हंट चलाया, तो नक्सलियों को 'बस्तरवासी ग्रामीण' बता दिया गया, और फोर्स के हाथ खींच लिए गए।
ऐसे तमाम मामले हैं जहां इन स्वघोषित बुद्धिजीवियों ने कोशिश की कि किसी तरह से माओवादियों के विरुद्ध चलाए जा रहे सुरक्षा बल के अभियानों को रोका जा सके, जिसमें वो सफल भी हुए। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब वर्तमान सरकार ने नक्सलवाद पर अंतिम प्रहार का जो दृढ़ निश्चय लिया है, वह जमीन पर उतरता दिखाई दे रहा है, ऐसे में शहरों में बैठे अर्बन नक्सलियों की तिलमिलाहट भी दिखाई दे रही है।