माओवादी प्रोपेगेंडा : ’फ्रंटलाइन' मैगज़ीन का नया अंक

10 Apr 2025 17:46:44

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"दंतेवाड़ा में माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ के 76 जवानों की 'हत्या' ने लोगों के बीच खलबली मचा दी है। इस बड़ी घटना को लेकर मीडिया ने बड़े ही पक्षपात तरीके से रिपोर्टिंग की, जिसने इस घटना को युद्ध, नरसंहार और इससे भी बदतर रूप में इसे पेश किया। टेलीविजन चैनलों ने गांधीवादियों, नागरिक स्वतंत्रता के समर्थकों, वामपंथी बुद्धिजीवियों से लेकर माओवादी पार्टी के गुरिल्ला नक्सलियों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर ऑपरेशन ग्रीन हंट की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं की आलोचना की थी। कुछ लोगों ने तो इन्हें माओवादियों का सहयोगी बताया था। लेकिन किसी ने सलवा जुडूम के कारण हुए अत्याचारों पर रिपोर्ट नहीं किया।"


06 अप्रैल, 2010 को देश में हुए अब तक के सबसे बड़े माओवादी हमले के एक महीने बाद मई, 2010 में 'द हिन्दू' ग्रुप की मैगज़ीन 'फ्रंटलाइन' में यह आलेख छपा था, जिसमें माओवादियों के द्वारा किए गए जघन्य नरसंहार पर चुप्पी थी, वहीं उस पर रिपोर्टिंग करने वाले मीडिया समूहों को ही गलत बताने का प्रयास किया गया था।

फ्रंटलाइन ने अपनी इस रिपोर्ट में माओवादियों के आतंकी हमले को 'नरसंहार' या 'हमला' बताने का विरोध जताया था, जिसमें उनका कहना था कि सलवा जुडूम के तथाकथित पीड़ितों की रिपोर्टिंग क्यों नहीं हो रही है ? जबकि सच्चाई यह थी कि माओवादियों के हमले में 76 जवान बलिदान हो चुके थे।


जो फ्रंटलाइन आज से 15 वर्ष पहले माओवादियों का प्रोपेगैंडा चला रहा था, आज वर्ष 2025 में भी वही कार्य कर रहा है। इसे समझने से पहले फ्रंटलाइन में छपे दो आलेखों के कुछ अंश को पढ़ते हैं -


'बस्तर : ब्लड ऑन ऑवर हैंड्स' शीर्षक से छपे एक लेख में लिखा है कि "2025 के केवल तीन महीनों में ही सुरक्षाकर्मियों ने 'कथित रूप से' 140 माओवादियों को मार गिराया है, जो वर्ष 2024 के आंकड़ें (235) के आधे से अधिक है। 2023 की तुलना में यह आंकड़ें चौकाने वाले हैं, जहां केवल 23 'कथित' माओवादी मारे गए थे।"


'इन छत्तीसगढ़, द वॉर ऑन मॉइस्ट्स बिकम्स आ वॉर ऑन अदिवासिस' शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में फ्रंटलाइन ने लिखा है कि "वर्ष 2012 में छत्तीसगढ़ पुलिस और सलवा जुडूम के एसपीओ द्वारा स्वामी अग्निवेश पर मार्च 2011 में हुए हमले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित सीबीआई टीम पर एसपीओ द्वारा हमला किया गया था। इसके बाद सीआरपीएफ ने हस्तक्षेप कर इन्हें बचाया गया था।"


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उपरोक्त दोनों लेख कम्युनिस्ट प्रोपेगैंडा मैगज़ीन 'फ्रंटलाइन' ने हाल ही में प्रकाशित किए हैं। अब यदि हम 15 वर्ष पहले और आज के लेख में देखें, तो यह स्पष्ट दिखता है कि कैसे फ्रंटलाइन मैगज़ीन माओवादियों को वैचारिक सपोर्ट करने का काम कर रहा है। यह दोनों आर्टिकल फ्रंटलाइन के नये अंक में प्रकाशित किए गए हैं, जिसके कवर में लिखा गया है "स्टेट वर्सेज़ सिटीजन"


फ्रंटलाइन का यह पूरा अंक छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र को केंद्रित कर बनाया गया है, जिसमें ना सिर्फ सरकार को बल्कि सुरक्षाकर्मियों को भी निशाना बनाने की कोशिश की गई है। माओवादियों को 'कथित माओवादी' बताना हो या संदिग्ध अर्बन नक्सलियों का इंटरव्यू लेकर उन्हें लाइमलाइट देना हो, फ्रंटलाइन के इस अंक में हर वो प्रयास किया गया है, जिससे माओवादी आतंक पर चल रहे कड़े प्रहार का विरोध किया जा सके।


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31 आलेखों के इस अंक में फ्रंटलाइन ने माओवाद से जुड़े 10 आलेख प्रकाशित किए हैं, जिसमें माओवादियों की गिरफ्तारी से लेकर मुठभेड़ों में उनके ढेर होने को तो 'कथित' और 'फर्जी' बताने का प्रयास किया गया है, वहीं दूसरी ओर बस्तर के जनजातियों को माओवादियों का समर्थक और सरकार द्वारा शोषित बताने की भी कोशिश की गई है।

इस अंक में फ़्रंटलाइन ने कुछ आलेखों में प्रतिबंधित आतंकी फ़्रंटल संगठन "मूलवासी बचाओ मंच" का भी समर्थन किया है, जिसके अध्यक्ष पर सरकार ने इनाम घोषित किया है। वहीं फ़ोर्स द्वारा चलाए जा रहे नक्सल उन्मूलन के अभियानों का खुलकर विरोध किया गया है, साथ ही माओवादियों के फ़्रंटल संगठन में सक्रिय रूप से शामिल लोगों की पैरवी भी की गई है।


“दिलचस्प बात यह है कि फ्रंटलाइन का माओवाद पर केंद्रित यह अंक अप्रैल के महीने में आया है, जिस माह में माओवादियों ने आज तक सबसे बड़ा हमला भारत में किया है। यह हमला माओवादियों ने 6 अप्रैल, 2010 को तत्कालीन दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला में किया था, जिसमें सीआरपीएफ के 75 जवान और छत्तीसगढ़ पुलिस का एक जवान बलिदान हुआ था। लेकिन इस मैगज़ीन में कहीं भी उन बलिदानियों के लिए कोई श्रद्धांजलि नहीं है।”


सिर्फ इतना ही नहीं, फ्रंटलाइन के इस अंक के एक आलेख में 'साउथ एशियन टेररिज़्म पोर्टल' का हवाला देते हुए एक माओवादियों के मारे जाने का आंकड़ा तो सामने रखा गया है, लेकिन इसी पोर्टल के अनुसार आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों के मारे जाने के आंकड़ें को किसी आलेख में जगह नहीं दी गई।


फ्रंटलाइन यह तो बता रहा है कि कैसे माओवादी मारे जा रहे हैं, लेकिन उसने यह नहीं बताया कि केवल वर्ष 2007 में छत्तीसगढ़ में माओवादी हमले 198 जवान बलिदान हुए थे। वर्ष 2009 और 2010 में यह संख्या क्रमशः 127 और 150 थी।


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फ्रंटलाइन का एक आलेख बता रहा है कि कैसे माओवादियों को खत्म करने के चक्कर में फोर्स आम ग्रामीणों पर अत्याचार कर रही है, जिसकी कोई जमीनी सच्चाई नहीं है। लेकिन फ्रंटलाइन ने उन बेकसूर ग्रामीणों की कहानी अपने इस पूरे अंक में नहीं रखा जो इस माओवादी हिंसा के कारण अपाहिज हो गए, जिन्होंने अपने आंख खो दिए, पैर खो दिए और विकलांग हो गए।


उस सोढ़ी राहुल की कहानी फ्रंटलाइन में नहीं है, जो माओवादियों के आईईडी विस्फोट में घायल होकर विकलांग हो गया। ना ही कहानी है राधा सलाम की और ना ही माड़वी नंदा की। तो ये बस्तर में माओवाद से केंद्रित कैसा अंक है, जो माओवाद की असलियत को ही नहीं दिखा रहा है ?


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दरअसल यह एक प्रोपेगैंडा अंक है, जो केवल और केवल माओवाद के आतंक को कम कर दिखाने और फोर्स को बदनाम करने के लिए प्रकाशित किया गया है। इस अंक का उद्देश्य माओवाद की जानकारी देना नहीं, बल्कि उसके प्रति सांत्वना और फोर्स एवं सरकार के प्रति घृणा पैदा करना है।

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